प्यारे दोस्तों,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
27 फ़रवरी को रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने रूसी सशस्त्र बलों के जनरल स्टाफ़ के प्रमुख वैलेरी गेरासिमोव और रूसी रक्षा मंत्री सर्गेई शोइगु से मुलाक़ात की। पुतिन ने कहा, ‘प्रमुख नाटो [उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन] देशों के शीर्ष अधिकारियों ने हमारे देश के ख़िलाफ़ आक्रामक बयान दिए हैं’। इसलिए, उन्होंने अपने शीर्ष अधिकारियों से ‘रूसी सेना के प्रतिरोध बलों को कॉम्बैट ड्यूटी के विशेष मोड में स्थानांतरित करने के लिए’ कहा। नौकरशाही की भाषा में कहे गए इस अंतिम वाक्यांश का अर्थ है कि रूस के परमाणु शस्त्रागार अब हाई अलर्ट पर हैं। इसी दौरान, ऐसा प्रतीत होता है कि रूसी सेना ने यूक्रेन में ज़ापोरिज़्ज़िया परमाणु ऊर्जा संयंत्र पर क़ब्ज़ा कर लिया है। यह यूरोप का सबसे बड़ा परमाणु ऊर्जा संयंत्र है। इस संयंत्र में आग लगने के बारे में आई खबरें ग़लत थीं, लेकिन यह पता चलना ही पूरी तरह से दिल दहलाने वाला था कि उस जगह पर लड़ाई हुई थी।
दुनिया के 12,700 परमाणु हथियारों में से 90% से भी ज़्यादा संयुक्त राज्य अमेरिका और रूस के पास हैं; बाक़ी के परमाणु हथियार सात अन्य देशों के पास हैं। अमेरिका, रूस, ब्रिटेन और फ़्रांस के कुल परमाणु हथियारों में से लगभग 2,000 हथियार हमेशा हाई अलर्ट पर रहते हैं। इसका मतलब है कि उन्हें पलभर के इशारे पर इस्तेमाल किया जा सकता है। संयुक्त राज्य अमेरिका ने न केवल अपने क्षेत्र में बल्कि यूरोप सहित दुनिया भर के कई हिस्सों में परमाणु हथियार तैनात किए हुए हैं। अमेरिका के बी61 परमाणु गुरुत्वाकर्षण बमों में से लगभग 100 बम बेल्जियम, जर्मनी, इटली, नीदरलैंड और तुर्की -नाटो सदस्य देशों- में तैनात हैं। 2018-19 में, संयुक्त राज्य अमेरिका एकतरफ़ा तौर पर 1987 की इंटरमीडिएट-रेंज न्यूक्लियर फ़ोर्सेज़ (आईएनएफ़) संधि से पीछे हट गया था। यह संधि रूस के साथ किया गया एक हथियार नियंत्रण समझौता था। अमेरिका द्वारा संधि तोड़ने के तुरंत बाद रूस ने भी वही किया। संधि के टूटने का मतलब है कि ये दोनों देश अब 5,500 किलोमीटर तक की सीमा वाले ग्राउंड-लॉन्च्ड मिसाइलों को तैनात कर सकते हैं। और ये सब यूरोप और उसके आसपास के क्षेत्रों की सुरक्षा प्रणालियों को गंभीर रूप से कमज़ोर कर सकता है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि अमेरिका के आईएनएफ़ से हटने के बाद से रूस को यह महसूस होने लगा कि संयुक्त राज्य अमेरिका इस तरह की मिसाइलों को तैनात करने और रूसी शहरों पर हमला करने का समय कम करने के लिए रूस की सीमाओं से निकटता चाहता है। इससे से भी बढ़कर, संयुक्त राज्य अमेरिका 100 अरब डॉलर की लागत पर -जीबीएसडी (ज़मीन आधारित रणनीतिक निवारक) नामक- एक नयी मिसाइल प्रणाली तैयार कर रहा है, जो लगभग 10,000 किलोमीटर की यात्रा कर सकती है; यह मिसाइल परमाणु हथियार ले जा सकती है और मिनटों में दुनिया के किसी भी हिस्से पर हमला कर सकती है।
आईएनएफ़ से पीछे पटना, जीबीएसडी का विकास, यूक्रेन पर रूस का हमला- ये सब ख़तरनाक घटनाक्रम तब हो रहे हैं जब पूरी दुनिया ने 2017 में परमाणु हथियार निषेध संधि पर ‘सहमति’ जताई थी और यह संधि 22 जनवरी 2021 से लागू हो चुकी है। संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों की बड़ी संख्या, 122 देशों, ने इस संधि के पक्ष में मतदान किया था; केवल एक सदस्य (नीदरलैंड) ने इसके ख़िलाफ़ मतदान किया था। हालाँकि, 69 देशों ने इस मतदान में भाग नहीं लिया था। मतदान न करने वाले देशों में परमाणु हथियार रखने वाले सभी नौ देश और नीदरलैंड को छोड़कर नाटो के सभी सदस्य देश शामिल थे। यूक्रेन में रूस की सैन्य कार्रवाई, कम-से-कम इस बात की ओर तो ध्यान दिलाती है कि वैश्विक परमाणु हथियारों पर प्रतिबंध लगाना क्यों ज़रूरी है, और हर एक देश को अपने परमाणु हथियारों को निरस्त्र करने और उनका परित्याग करने के लिए प्रतिबद्ध क्यों होना चाहिए।
परमाणु हथियारों के उन्मूलन की वैश्विक इच्छा को आगे ले जाने का एक व्यावहारिक तरीक़ा है: परमाणु-हथियार-मुक्त क्षेत्रों (एनडब्ल्यूएफ़ज़ेड) का विस्तार।
1960 के दशक की शुरुआत से, संयुक्त राष्ट्र में मेक्सिको के प्रतिनिधि, अल्फोंसो गार्सिया रॉबल्स, अमेरिकाज़ में एक एनडब्ल्यूएफ़ज़ेड विकसित करने की लड़ाई का नेतृत्व किया। यदि ये क्षेत्रीय ज़ोन बनाए जाते हैं और इनका विस्तार किया जाता है, तो 1974 में संयुक्त राष्ट्र में गार्सिया रॉबल्स ने कहा था कि अंततः वह क्षेत्र ‘जहाँ से परमाणु हथियार निषिद्ध होंगे वो इतने बड़े हो जाएँगे कि जिन शक्तियों के पास सामूहिक विनाश के ये भयानक हथियार हैं, उनके इलाक़े कुछ दूषित टापुओं की तरह बन जाएँगे, जिन्हें क्वारंटीन कर दिया जाएगा’। गार्सिया रॉबल्स 1967 की ट्लेटेलोल्को संधि को पारित करने में मेक्सिको की नेतृत्वकारी भूमिका के लिए इस देश को मिले सम्मान के साथ बात करते थे। इस संधि ने पहला एनडब्ल्यूएफ़ज़ेड बनाया था, जिसमें अमेरिकी गोलार्ध के 35 देशों में से 33 देश शामिल थे; केवल कनाडा और संयुक्त राज्य अमेरिका इस ज़ोन से बाहर रहे।
ट्लेटेलोल्को संधि के बाद से चार अन्य एनडब्ल्यूएफ़ज़ेड बनाए जा चुके हैं: दक्षिण प्रशांत में (रारोटोंगा संधि, 1985 के तहत), दक्षिण पूर्व एशिया में (बैंकॉक संधि, 1995 के तहत), अफ़्रीकी महाद्वीप पर (पेलिंडाबा संधि, 1996 के तहत), और मध्य एशिया में (सेमिपालटिंस्क संधि, 2006 के तहत)। इन पाँच एनडब्ल्यूएफ़ज़ेड में कुल मिलाकर 113 देश शामिल हैं, जिनमें संयुक्त राष्ट्र के 60% सदस्य देश शामिल हैं और अफ़्रीकी महाद्वीप का प्रत्येक देश शामिल है। परमाणु हथियारों से संबंधित मुख्य क़ानूनी समझौते, जैसे कि परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी, 1968), इन परमाणु-हथियार-मुक्त क्षेत्रों की स्थापना की अनुमति देते हैं; उदाहरण के लिए, एनपीटी के अनुच्छेद VII में कहा गया है कि ‘इस संधि में [लिखा हुआ] कुछ भी परमाणु हथियारों की कुल अनुपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए क्षेत्रीय संधियाँ बनाने के लिए देशों के किसी भी समूह के अधिकार को प्रभावित नहीं करता है’। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने नियमित रूप से अतिरिक्त एनडब्ल्यूएफ़ज़ेड की स्थापना का आह्वान किया है।
कोई भी परमाणु हथियार संपन्न देश इन संधियों में शामिल नहीं हुआ है। इसका कारण इन संधियों के प्रति रुचि में कमी नहीं है। 1966 में, सोवियत संघ के प्रधान अलेक्सी कोश्यिन ने संयुक्त राष्ट्र की निरस्त्रीकरण समिति से कहा था कि उनकी सरकार एनपीटी में ‘ग़ैर-परमाणु देशों, जिनके पास अपने क्षेत्र में कोई परमाणु हथियार नहीं हैं, के ख़िलाफ़ परमाणु हथियारों के उपयोग’ को प्रतिबंधित करने हेतु एक धारा शामिल करने के लिए तैयार है। उसके अगले साल, निरस्त्रीकरण समिति में सोवियत संघ के राजदूत एलेक्सी रोशचिन ने कहा कि उनकी सरकार को उम्मीद है कि एनपीटी ‘परमाणु हथियारों की दौड़ को समाप्त करने की दिशा में, [और] परमाणु हथियारों के उन्मूलन की दिशा में पहला क़दम’ माना जाना चाहिए।
कोश्यिन और रोशचिन की ये भावनाएँ पोलिश विदेश मंत्री एडम रापाकी द्वारा 2 अक्टूबर 1957 को परमाणु रहित मध्य यूरोप के निर्माण के लिए संयुक्त राष्ट्र में प्रस्तावित की गई योजना का अनुसरण करती थीं। रापाकी योजना ने सुझाव दिया था कि पोलैंड और दोनों जर्मनी में एक एनडब्ल्यूएफ़ज़ेड स्थापित किया जाए, इस उम्मीद के साथ कि उस ज़ोन का विस्तार चेकोस्लोवाकिया तक किया जाएगा। इस योजना को सोवियत संघ और वारसॉ संधि के सभी देशों (अल्बानिया, पोलैंड, चेकोस्लोवाकिया, हंगरी, बुल्गारिया, रोमानिया और जर्मन लोकतांत्रिक गणराज्य) ने समर्थन दिया था।
रापाकी योजना पर आपत्ति नाटो और विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका ने जताई थी। दिसंबर 1957 में नाटो परिषद की पेरिस बैठक में, सैन्य गठबंधन ने अपने परमाणु हथियारों के निर्माण को जारी रखने का फ़ैसला किया; यह तर्क देते हुए कि सोवियत संघ ‘पूर्व-परमाणु युग के हथियारों’ पर भरोसा करने वाले यूरोपीय देशों पर हावी हो जाएगा। दो हफ़्ते बाद, पोलिश विदेश मंत्रालय ने नाटो के फ़ैसले पर चर्चा की और रापाकी योजना का दूसरा मसौदा तैयार करने की दिशा में उचित प्रतिक्रिया दी। योजना में शामिल किए गए चार नये तत्व थे:
1. यह गारंटी देना कि परमाणु मुक्त क्षेत्र पर परमाणु हथियारों से हमला नहीं होगा।
2. पारंपरिक सशस्त्र बलों को कम करने और संतुलित करने के लिए तैयार रहना।
3. क्षेत्र में सभी प्रकार के हथियारों के लिए नियंत्रण योजना विकसित करना।
4. परमाणु मुक्त क्षेत्र संधि के लिए क़ानूनी प्रारूप विकसित करना।
नाटो इनमें से किसी भी प्रस्ताव को गंभीरता से लेने को तैयार नहीं था। रापाकी योजना ने समय से पहले ही दम तोड़ दिया और आज काफ़ी हद तक भुला दी गई है। आज, यूरोप के किसी भी हिस्से में परमाणु-हथियार-मुक्त क्षेत्र बनाने के बारे में कोई चर्चा नहीं हो रही, भले ही यह परमाणु हमले के लिए ग्राउंड ज़ीरो है।
दुनिया के अन्य हिस्सों में परमाणु-हथियार-मुक्त क्षेत्र बनाने के कई सुझाव हैं। ईरान मध्य पूर्व में एनडब्ल्यूएफ़ज़ेड बनाने के समर्थकों में से एक रहा है। इस मामले को सबसे पहली बार 1974 में संयुक्त राष्ट्र में उठाया गया था और 1980 से 2018 तक हर साल मिस्र और ईरान द्वारा संयुक्त राष्ट्र महासभा में इसे प्रस्तावित किया जाता रहा और हर साल इसे बिना वोट के अपनाया जाता रहा। लेकिन वह प्रस्ताव भी मरणासन्न अवस्था में पहुँच चुका है क्योंकि इज़राइल इसे स्वीकार करने से इनकार करता है। सितंबर 1972 में, संयुक्त राष्ट्र परमाणु ऊर्जा सम्मेलन में पाकिस्तान के प्रतिनिधि मुनीर अहमद ख़ान ने दक्षिण एशिया में एक एनडब्ल्यूएफ़ज़ेड बनाने का प्रस्ताव रखा, लेकिन वो प्रस्ताव पीछे रह गया जब मई 1974 में भारत ने परमाणु हथियारों का परीक्षण किया। कभी-कभी कुछ देश आर्कटिक एनडब्ल्यूएफ़ज़ेड या प्रशांत महासागर एनडब्ल्यूएफ़ज़ेड बनाने का मुद्दा भी उठाते हैं, लेकिन इनमें से कोई भी पारित नहीं हुआ है। इन प्रस्तावों के प्रमुख विरोधी परमाणु हथियारों वाले देश हैं, जिनमें सबसे आगे है संयुक्त राज्य अमेरिका।
यूक्रेन में परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के आस-पास के क्षेत्रों में हो रही लड़ाई और परमाणु हथियारों के बारे में शक्तिशाली आदमियों द्वारा की जा रही ढीली टिप्पणियाँ हमें हमारे सामने खड़े बड़े ख़तरों की याद दिलाते हैं।
जब मैं बच्चा था, भारत के स्कूलों में 6 अगस्त को हिरोशिमा दिवस गंभीरता के साथ मनाया जाता था। हमारे स्कूल में हमें उस हमले की क्रूरता के बारे में बताया जाता था और फिर हम अपनी कक्षाओं में चले जाते और वहाँ हमने जो सीखा होता उसके ऊपर या तो कोई चित्र बनाते या कहानी लिखते। इस अभ्यास का एक ही उद्देश्य था कि हमारे युवा मनों में युद्ध के प्रति घृणा का भाव पैदा किया जाए। मुझे यह चौंकाता है कि हम -एक मानव सभ्यता के रूप में- हिरोशिमा और नागासाकी को और 1945 में संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा इन शहरों के लोगों पर गिराए गए भयावह हथियारों को भूल चुके हैं।
मैंने हिबाकुशा, उन हमलों में पीड़ित हुए लोगों, के शब्दों को पढ़ने और विल्फ्रेड बर्चेट, जॉन हर्सी, और चार्ल्स लोएब की पत्रकारिता और केंज़ाबुरो ओ, कोबो अबे, मासुजी इबुस, मिचिहिको हचिया, सांकिची तोगे, शिनो शोडा, तमिकी हारा, योको ओटा, योशी होट्टा, और अन्य लोगों के लेखन को पुन: पढ़ने में वर्षों ख़र्च किए हैं। ये लेखक युद्ध के आतंक और दुनिया पर उन लोगों द्वारा थोपी गई स्मृतिलोप को उजागर करते हैं जो हमें बार-बार युद्ध में घसीटते रहना चाहते हैं।
इस अध्ययन के दौरान जर्मन मार्क्सवादी दार्शनिक गुंथर एंडर्स और हिरोशिमा पर बमबारी करने के लिए अमेरिकी पायलटों के दल में से एक पायलट क्लाउड ईथरली के बीच हुए संवाद मेरे सामने आए। एंडर्स ने 1959 में ईथरली को पत्र लिखकर एक पत्र-व्यवहार शुरू किया, जिसके अंत में पूरी तरह से टूट चुके ईथरली ने हिरोशिमा के लोगों से क्षमा याचना करते हुए एक पत्र लिखा था। ईथरली को तीस युवा हिबाकुशा महिलाओं ने जवाब दिया, उनके जवाब ने मुझे गहराई से प्रभावित किया, और मुझे उम्मीद है कि उनका जवाब आप को भी प्रभावित करेगा:
हमने तुम्हारे प्रति एक साथी-भावना महसूस करना सीख लिया है,
यह सोचकर कि तुम भी युद्ध के शिकार हो
हमारी तरह।
ऐसे लगता है जैसे हिबाकुशा महिलाएँ उन भावनाओं को प्रसारित कर रही थीं जिन्होंने लगभग सौ साल पहले अंतर्राष्ट्रीय कामकाजी महिला दिवस को रूप दिया था, एक ऐसा दिन, जो कि 1917 में, ज़ारिस्ट रूस में क्रांति का प्रेरणास्रोत बना। युद्ध और उसके विभाजनों के बारे में, उस दिवस की संस्थापकों में से एक क्लारा जेटकिन ने लिखा था कि, ‘मारे गए और घायल हुए लोगों का ख़ून वर्तमान संकट और भविष्य की उम्मीद को जोड़ने वाली धारा को तोड़ने वाली धारा नहीं बनना चाहिए’।
स्नेह-सहित,
विजय।