प्यारे दोस्तों,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
जब संयुक्त राज्य अमेरिका ने 2003 में इराक़ के ख़िलाफ़ अपना अवैध युद्ध शुरू किया, तब क्यूबा के राष्ट्रपति फ़िदेल कास्त्रो ने ब्यूनस आयर्स, अर्जेंटीना में बात रखते हुए कहा कि ‘हमारा देश दूसरे लोगों पर बम नहीं गिराता’, और, ‘न ही यह शहरों पर बम गिराने के लिए हज़ारों जहाज़ भेजता है… हमारे देश के हज़ारों वैज्ञानिकों और डॉक्टरों को जान बचाने के लिए शिक्षित किया गया है’। क्यूबा में भी सेना थी, बेशक थी, लेकिन युद्ध करने वाली सेना नहीं; बल्कि कास्त्रो ने इसे ‘सफ़ेद कोट वालों की सेना’ कहा। हाल ही में क्यूबा के चिकित्सा कर्मियों की हेनरी रीव ब्रिगेड ने कोविड-19 महामारी के ज्वार को रोकने में मदद करने के लिए निस्वार्थ भाव से दुनिया भर में काम किया था।
कास्त्रो हमें याद दिलाते हैं कि इस दुनिया में जीने के दो तरीक़े हैं। हम हथियारों से लैस युद्ध भरी दुनिया में रह सकते हैं, जहाँ हर समय डर बना रहता है और लगातार युद्ध की तैयारी चलती रहती है। या, हम शिक्षकों और डॉक्टरों, वैज्ञानिकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं, कहानीकारों और गायकों की दुनिया में रह सकते हैं। हम उन लोगों पर विश्वास कर सकते हैं जो युद्ध और मुट्ठी भर लोगों के मुनाफ़ों पर टिकी मौजूदा मनहूस दुनिया से बेहतर दुनिया बनाने में हमारी मदद करते हैं।
हमें डर लगा रहता है कि एक नयी दीवार खींच दी जाएगी, चीन और रूस को एक ख़ाने में रखकर दुनिया को दो धड़ों में बाँटने की कोशिश की जाएगी। लेकिन ऐसा करना असंभव है, क्योंकि – जैसा कि हमने पिछले हफ़्ते के न्यूज़लेटर में बताया था- हम निश्चितता की भरी साफ़-सुथरी दुनिया में रहने के बजाये अंतर्विरोधों में उलझे हुए हैं। ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, जापान और भारत जैसे अमेरिका के क़रीबी सहयोगी भी रूस और चीन के साथ अपने आर्थिक और राजनीतिक संबंधों को नहीं तोड़ सकते। ऐसा करने से ये देश मंदी की चपेट में आ जाएँगे, और वहाँ उस प्रकार की आर्थिक अराजकता फैल जाएगी जैसी युद्ध और प्रतिबंधों के कारण होंडुरास, पाकिस्तान, पेरू और श्रीलंका में फैली है। इन देशों में -जो पहले से ही अभिजात वर्गों के लालच और विदेशी दूतावासों और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से पीड़ित हैं- ईंधन की बढ़ती क़ीमतों ने एक आर्थिक संकट को एक राजनीतिक संकट में बदल दिया है।
युद्ध या तो किसी देश की राजनीतिक संस्थाओं और उसकी सामाजिक क्षमता के विनाश के साथ ख़त्म होता है या युद्धविराम और समझौता वार्ताओं के साथ। 2011 में लीबिया पर उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) का युद्ध हवा में कॉर्डाइट की गंध और जर्जर सामाजिक व्यवस्था के साथ ख़त्म हुआ। लीबिया में जो हुआ वह कहीं भी दोहराया नहीं जाना चाहिए, यूक्रेन में भी नहीं। फिर भी अफ़ग़ानिस्तान, सोमालिया और यमन के लोगों के साथ वैसा ही हो रहा है; वे लोग पश्चिम द्वारा थोपे गए युद्धों में घुट रहे हैं –जिन्हें पश्चिम द्वारा थोपा गया है, और जिनसे पश्चिम मुनाफ़ा कमा रहा है।
जब समकालीन रूस यूएसएसआर के पतन से उभरा, तो बोरिस येल्तसिन ने टैंकों के साथ रूस की संसद के ख़िलाफ़ तख़्तापलट का नेतृत्व किया। वर्तमान समय में रूस की सत्ता में बैठे लोग, इन हिंसक शुरुआतों और अन्य युद्ध-पीड़ित देशों के अनुभवों के संदर्भ में काम कर रहे हैं। वे नहीं चाहते कि उनके साथ वो हो जो लीबिया या यमन या अफ़ग़ानिस्तान के साथ हुआ। बेलारूस के होमेल वोबलास्ट्स (गोमेल क्षेत्र) में रूस और यूक्रेन के बीच बातचीत चल रही है, लेकिन विश्वास को मज़बूत करके ही युद्धविराम एक वास्तविक संभावना बनाई जा सकती है। किसी भी प्रकार के युद्धविराम का मक़सद केवल यूक्रेन के अंदर युद्ध बंद करवाना नहीं होना चाहिए -जबकि ये बहुत ज़रूरी है; पूरे यूरेशिया पर व्यापक अमेरिकी दबाव के अभियान को रोकना भी युद्धविराम में शामिल होना चाहिए।
यह दबाव का अभियान क्या है और इसके बारे में बात करने की अभी क्या ज़रूरत है? क्या हमें केवल यह नहीं कहना चहिए कि रूस यूक्रेन से बाहर जाओ? इस तरह का नारा, सही होते हुए भी, इस युद्ध के पीछे की गहरी समस्याओं को ठीक से अभिव्यक्त नहीं करता।
जब यूएसएसआर का पतन हुआ, तो पश्चिमी देशों ने बोरिस येल्तसिन (1991-1999) और फिर व्लादिमीर पुतिन (1999 से) के माध्यम से अपने संसाधनों और शक्ति का इस्तेमाल किया। सबसे पहले, पश्चिम ने रूस के सामाजिक ताने बाने को नष्ट करके और रूस के अभिजात वर्ग के लिए देश की सामाजिक संपत्ति हड़पने का अवसर मुहय्या कर के रूस के लोगों को ग़रीब बनाया। फिर, उन्होंने रूस के नये अरबपतियों को पश्चिम-संचालित वैश्वीकरण में निवेश करने के लिए आकर्षित किया (जैसे अंग्रेज़ी फ़ुटबॉल टीमों को फ़ंड करना)। पश्चिम ने चेचन्या (1994-1996) में येल्तसिन के खूनी युद्ध और फिर चेचन्या में पुतिन द्वारा किए गए युद्ध (1999-2000) का समर्थन किया। पूर्व ब्रिटिश प्रधान मंत्री टोनी ब्लेयर (1997–2007) अपने हाथ में चोट लगने तक रूस के लिए ब्रिटिश हथियार ख़रीदने हेतु भत्तों पर हस्ताक्षर करते रहे और 2000 में उन्होंने पुतिन का लंदन में स्वागत करते हुए कहा कि, ‘मैं चाहता हूँ कि रूस और पश्चिम स्थिरता और शांति को बढ़ावा देने के लिए मिलकर काम करें’। 2001 में, अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने पुतिन की आँखों में देखने और उनकी आत्मा के अंदर झाँकने का वर्णन किया, उन्हें ‘सीधा सादा और भरोसेमंद’ कहा। उसी वर्ष, द न्यूयॉर्क टाइम्स के थॉमस फ़्रीडमैन ने पाठकों से कहा कि पुतिन की ‘हौसला अफ़ज़ाई करते रहें’। वो पश्चिम ही था जिसने रूस के अरबपति वर्ग को राज्य पर क़ब्ज़ा करने और रूस के समाज पर हावी होने में मदद की थी।
एक बार जब रूसी सरकार ने फ़ैसला किया कि यूरोप और अमेरिका के साथ मिलकर काम करना संभव नहीं है, तो पश्चिम ने पुतिन को शैतान के रूप में चित्रित करना शुरू कर दिया। यह कहानी बार-बार दोहराई जाती है: इराक़ के सद्दाम हुसैन अमेरिका के महान नायक थे और बाद में खलनायक, पनामा के पूर्व सैन्य नेता मैनुअल एंटोनियो नोरिएगा के साथ भी ऐसा ही हुआ। अभी दाँव पर बहुत कुछ है, ख़तरे बहुत ज़्यादा हैं।
वर्तमान समय के पीछे कई संदर्भ हैं, जिनके बारे में हमने इस साल के हमारे दसवें न्यूज़लेटर में लिखा था। अमेरिका ने बैलिस्टिक मिसाइल संधि (2001) और इंटरमीडिएट-रेंज न्यूक्लियर फ़ोर्सेज़ (आईएनएफ़) संधि (2018) से हटकर अंतर्राष्ट्रीय हथियार नियंत्रण तंत्र को नष्ट किया और इस तरह से निवारण की नीति को प्रभावित किया। दिसंबर 2018 में, अमेरिका ने अपने सहयोगियों को साथ मिलाकर, संयुक्त राष्ट्र महासभा को आईएनएफ़ के हक़ में एक प्रस्ताव पारित करने से रोक दिया था। पुतिन ने सुरक्षा गारंटी की आवश्यकता पर बात करना शुरू किया, यूक्रेन से या नाटो से सुरक्षा नहीं, जो कि वाशिंगटन की महत्वाकांक्षाओं के लिए रेस के घोड़े हैं: रूस ने सीधे अमेरिका से सुरक्षा गारंटी की गुहार की।
क्यों? क्योंकि 2018 में, अमेरिकी सरकार ने विदेश नीति में बदलाव की घोषणा की, जिसका संकेत था कि वे चीन और रूस के साथ प्रतिस्पर्धा बढ़ाएँगे। इन दोनों देशों के आस-पास नाटो के नेतृत्व में होने वाले नौसैनिक अभ्यासों ने रूस को अपनी सुरक्षा के बारे में चिंता करने का एक और कारण दिया। अमेरिका का युद्ध से लगाव उसकी 2022 की राष्ट्रीय रक्षा रणनीति में निहित है, जहाँ उसका दावा है कि संयुक्त राज्य अमेरिका ‘यूरोप में रूस की चुनौती से ऊपर हिंद-प्रशांत क्षेत्र में [चीन की] चुनौती को प्राथमिकता देते हुए, [वह] ज़रूरत पड़ने पर संघर्ष में जीतने के लिए तैयार है’। अहम पंक्ति है कि अमेरिका संघर्ष में जीतने के लिए तैयार है। वर्चस्व क़ायम रखने और हराने का यह पूरा रवैया मानवता के ख़िलाफ़ एक तरह की दबंगई है। यूरेशिया पर अमेरिका का दबाव अभियान समाप्त होना चाहिए।
हम विभाजित दुनिया नहीं चाहते। हम एक यथार्थवादी दुनिया चाहते हैं: मानवता की दुनिया, जो जलवायु आपदा से निपटे। एक ऐसी दुनिया जो भूख और अशिक्षा को ख़त्म करना चाहती है। एक ऐसी दुनिया जो हमें निराशा से निकालकर आशा और उम्मीद की ओर ले जाना चाहती है। एक ऐसी दुनिया जिसमें बंदूक़ों वाली सेनाओं के बजाय सफ़ेद कोट वाले डॉक्टरों की सेनाएँ ज़्यादा हों।
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान में हम, डर के ख़िलाफ़ उम्मीद की दुनिया, और नफ़रत के ख़िलाफ़ प्यार की दुनिया का निर्माण करने वाले लोगों के जीवन और उनकी आवाज़ को सामने लेकर आते हैं। ऐसी ही एक महिला हैं नेला मार्टिनेज एस्पिनोसा (1912-2004), जिनपर हमारी सिरीज़ ‘विमन ऑफ़ स्ट्रगल, विमन इन स्ट्रगल’ का तीसरा अध्ययन आधारित है। नेला, इक्वाडोर की कम्युनिस्ट पार्टी की एक प्रमुख हस्ती थीं और उन्होंने जनता में आत्म-विश्वास जगाने वाले संस्थानों का निर्माण किया। इनमें फ़ासीवाद-विरोधी मोर्चे और महिला संगठन, इक्वाडोर के आदिवासियों के अधिकारों के समर्थन में बने संगठन और क्यूबा की क्रांति के हक़ में बने मंच शामिल थे। 1944 में, मई क्रांति के दौरान, नेला ने कुछ समय के लिए सरकार का नेतृत्व किया। जीवन भर वे एक बेहतर दुनिया बनाने के लिए अथक प्रयास करती रहीं।
2000 में, शांति के लिए और हस्तक्षेप के ख़िलाफ़ महिलाओं के महाद्वीपीय मोर्चे की अध्यक्ष के रूप में, नेला ने मंटा शहर में अमेरिकी सैन्य अड्डा बनाने के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी। नेला ने कहा, ‘उपनिवेशीकरण लौट आया है। हम इस उपनिवेश से कैसे बचेंगे? हम अपनी कायरता के सामने ख़ुद को कैसे सही ठहरा सकते हैं?’
उनका यह सवाल आज भी हमारे लिए सटीक है। हम विभाजित दुनिया में नहीं रहना चाहते। हमें एक और नयी दीवार बनाने के प्रयासों को रोकना चाहिए। हमें अपने डर के ख़िलाफ़ लड़ना चाहिए। हमें बिना दीवारों वाली दुनिया के लिए लड़ना चाहिए।
स्नेह-सहित,
विजय।