प्यारे दोस्तों,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
कुछ साल पहले, एक मामूली बीमारी की वजह से मुझे निकारागुआ की राजधानी मानागुआ में स्थित अलेमन–निकारागुएन्स अस्पताल जाना पड़ा। इलाज के दौरान मैंने अपने वृद्ध डॉक्टर से पूछा कि क्या यह अस्पताल किसी जर्मन मिशनरी संगठन के सहयोग से बनाया गया है; (क्योंकि स्पैनिश भाषा में, अलेमन का अर्थ है ‘जर्मन‘)। उन्होंने कहा, नहीं, इस अस्पताल का नाम था कार्लोस मार्क्स अस्पताल, और इसे 1980 के दशक में जर्मन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक (डीडीआर) यानी पूर्वी जर्मनी के सहयोग से बनाया गया था। डीडीआर ने निकारागुआ की सैंडिनिस्टा सरकार के साथ मिलकर ज़ोलोट्लान इलाक़े के मज़दूरों के लिए यह अस्पताल बनाया था। इस इलाक़े में तीन लाख लोग बिना किसी स्वास्थ्य देखभाल सुविधा के रहते थे। डीडीआर के एक बड़े एकजुटता अभियान ने इस परियोजना हेतु धन जुटाने में मदद की थी, और पूर्वी जर्मनी के चिकित्सकों ने निर्माण शुरू होने से पहले ज़ोलोट्लान में अस्थायी चिकित्सा शिविर स्थापित किए थे। यह ईंट–पत्थर का अस्पताल 23 जुलाई 1985 को खुला था।
1979 में सैंडिनिस्टा नेशनल लिबरेशन फ़्रंट (एफ़एसएलएन) के हाथ सत्ता आई थी, लेकिन एफ़एसएलएन के क्रांतिकारियों को एक ऐसा देश विरासत में मिला था जहाँ शिशु मृत्यु दर प्रति हज़ार में 82 तक पहुँच चुका था (जो कि आज की दुनिया में सबसे उच्चतम दर होगी) और जहाँ स्वास्थ्य देखभाल पर आबादी के एक छोटे से हिस्से का एकाधिकार था। इसके अलावा, जब एफ़एसएलएन जीत कर मानागुआ पहुँचा, तब तक सोमोज़ा परिवार के 43 साल के शासन में उनके द्वारा बनाया गया स्वास्थ्य देखभाल तंत्र जर्जर हो चुका था: 1972 के भूकंप ने शहर की 70% इमारतों को नष्ट कर दिया था, जिनमें सेना व बैपटिस्ट अस्पताल और बड़ी मात्रा में स्वास्थ्य देखभाल सुविधाएँ शामिल थीं। कार्लोस मार्क्स अस्पताल समाजवादियों की उल्लेखनीय एकजुटता का नतीजा था, जिसे उन्होंने देश के कुलीनतंत्र के शोषण और वाशिंगटन में बैठे उनके समर्थकों की क्रूरता से खंडित समाज में बनाया था (अमेरिकी राष्ट्रपति फ़्रैंकलिन डी रूज़वेल्ट ने 1939 में तात्कालीन तानाशाह के बारे में कहा था कि, ‘सोमोज़ा कुतिया का बेटा हो सकता है, लेकिन वह कुतिया का बेटा हमारा है‘)। डीडीआर की सहायता व क्यूबा के चिकित्सा कर्मियों के प्रयासों के रूप में समाजवादी अंतर्राष्ट्रीयतावाद और सैंडिनिस्टा स्वास्थ्य अभियानों के विकास ने निकारागुआ के जन–जीवन में उल्लेखनीय सुधार किया।
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान और इंटरनेशनेल फोर्सचंग्सस्टेल डीडीआर (आईएफ़डीडीआर) संयुक्त रूप से ‘स्टडीज़ ऑन द डीडीआर’ सीरीज़ के तहत अध्ययन कर रहे हैं। उनके हालिया लेख ‘सोशलिज़्म इज़ द बेस्ट प्रोफ़िलैक्सिस: द जर्मन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक’स हेल्थ केयर सिस्टम’ ने मुझे कार्लोस मार्क्स अस्पताल की याद दिला दी। कार्लोस मार्क्स अस्पताल के बारे में यह जानकारी इस अध्ययन में शामिल डीडीआर की अंतर्राष्ट्रीय चिकित्सा एकजुटता पर लिखे गए खंड से ली गई है। इस एकजुटता के कई उदाहरणों में वियतनाम पर अमेरिकी युद्ध के दौरान वहाँ एक अस्पताल का निर्माण करना और तीसरी दुनिया के देशों के हज़ारों डॉक्टरों को प्रशिक्षण देना भी शामिल है। हालाँकि यह अध्ययन चिकित्सा एकजुटता पर केंद्रित नहीं है, जो कि डीडीआर के व्यापक समाजवादी अंतर्राष्ट्रीयवाद का सिर्फ़ एक हिस्सा था, जिस पर ‘स्टडीज़ ऑन द डीडीआर’ शृंखला में आगे चल कर लिखा जाएगा।
यह अध्ययन डीडीआर द्वारा बेहद कम संसाधनों के साथ द्वितीय विश्व युद्ध से तबाह हो चुके और पश्चिमी जर्मनी की एक–तिहाई आबादी के बराबर जनसंख्या वाले देश में एक मानवीय और न्यायोचित स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली बनाने के प्रयासों पर केंद्रित है। इस अध्ययन का शीर्षक, ‘सोशलिज़्म इज़ द बेस्ट प्रोफ़िलैक्सिस‘, कम्युनिस्ट और अंतर्राष्ट्रीय महिला अधिकार कार्यकर्ता क्लारा ज़ेटकिन (1857-1933) के बेटे डॉ. मैक्सिम ज़ेटकिन (1883-1965) द्वारा दिए गए एक बयान से लिया गया है। ज़ेटकिन के शब्द डीडीआर में महत्वपूर्ण नारा बन गए और डीडीआर द्वारा बड़ी आबादी के लिए बनाई गई सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली पर प्रचलित लोकोक्ति बन गए; क्योंकि डीडीआर ने इस बात पर ज़ोर दिया कि स्वास्थ्य देखभाल को निवारक, या रोगनिरोधी (प्रोफ़िलैक्सिस) होना चाहिए, यानी स्वास्थ्य देखभाल प्रतिक्रियात्मक नहीं होनी चाहिए, या केवल बीमारी होने या चोट लगने के बाद उनका उपचार करने से संबंधित नहीं होनी चाहिए। वास्तव में निवारक देखभाल में स्वास्थ्य को चिकित्सा उपचार के रूप में देखने के बजाये जीने और काम की स्थितियों में लगातार सुधार करके जनसंख्या की सामान्य भलाई पर ध्यान दिया जाता है। डीडीआर ने यह समझ लिया था कि स्वास्थ्य को एक सामाजिक ज़िम्मेदारी के रूप में देखते हुए, कार्यस्थल सुरक्षा से लेकर प्रजनन देखभाल तक महिलाओं की सार्वभौमिक पहुँच, व किंडरगार्टनों, स्कूल में पोषण तथा जाँच से लेकर श्रमिक वर्ग के लिए छुट्टियों की गारंटी तक सभी नीतियों में स्वास्थ्य को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। लेकिन ज़ेटकिन के शब्द इस बात पर भी प्रकाश डालते हैं कि निवारक देखभाल केवल एक ऐसी प्रणाली द्वारा स्थापित की जा सकती है जो मुनाफ़े के उद्देश्य को समाप्त कर सके; क्योंकि मुनाफ़ा देखभाल श्रमिकों के शोषण, क़ीमतों में उछाल, जीवन रक्षक दवाओं पर पेटेंट और वस्तुओं की कृत्रिम कमी को ही बढ़ावा देता है।
डीडीआर ने चिकित्सा संस्थानों का एक ऐसा नेटवर्क बनाया जो आहार और जीवन शैली में सुधार करने के साथ–साथ बीमारियों के गंभीर रूप धारण करने से पहले ही उनकी जल्द पहचान और इलाज के लिए काम करता था। यह सब एक ऐसे देश में किया गया था जिस पर कई प्रतिबंध थे, और जहाँ पर बुनियादी भौतिक ढाँचे युद्ध में नष्ट हो गए थे और जहाँ के कई डॉक्टर पश्चिम भाग गए थे (विशेष रूप से इसलिए क्योंकि लगभग 45 प्रतिशत जर्मन चिकित्सक नाज़ी पार्टी के सदस्य थे, और वे जानते थे कि पश्चिम उनके साथ नरमी से पेश आएगा, जबकि डीडीआर और सोवियत संघ में उनपर मुक़दमा चलाया जाता)।
व्यापक स्वास्थ्य देखभाल की ओर डीडीआर की प्रतिबद्धता सामाजिक चिकित्सा के विचार पर आधारित थी। इस विचार का विकास आधुनिक पैथोलॉजी के संस्थापक, रूडोल्फ़ विर्चो (1821-1902), द्वारा स्वास्थ्य के सामाजिक–राजनीतिक निर्धारकों की जाँच के आधार पर, और 1918 से 1930 तक सोवियत संघ में स्वास्थ्य के लिए पीपल्स कमिसार रहे निकोलाई सेमाशको द्वारा विकसित ‘सिंगल पेयर’ स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली के आधार पर हुआ था।
हमारे अध्ययन में डीडीआर की स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली के जिन अहम पहलुओं पर लिखा गया है उनमें पॉलीक्लिनिक और सामुदायिक नर्स प्रणाली भी शामिल हैं। डीडीआर में जब कोई व्यक्ति बीमार महसूस करता था, तो वह व्यक्ति पॉलीक्लिनिक जाता था, जो उनके मुहल्ले या कार्यस्थल में ही स्थित होता था। कोई भी व्यक्ति पॉलीक्लिनिक में जाकर अपनी बीमारी के बारे में डॉक्टर को बता सकता था, और डॉक्टर उन्हें क्लिनिक के विशेषज्ञ विभागों (जैसे आंतरिक चिकित्सा, मौखिक चिकित्सा, स्त्री रोग, शल्य चिकित्सा, बाल चिकित्सा और सामान्य चिकित्सा) में से किसी एक में भेज देते थे। चिकित्सा पेशेवरों को सरकारी नौकरी पर रखा जाता था और वेतन दिया जाता था; इस प्रकार वे अनावश्यक परीक्षणों और दवाओं के ज़रिये बीमा कंपनियों या रोगियों के लिए बड़े–बड़े बिल बनाने के बजाये रोगी को ठीक करने पर ध्यान दे पाते थे। एक पॉलीक्लिनिक में काम करने वाले डॉक्टर और विशेषज्ञ उपचार का सबसे अच्छा तरीक़ा खोजने के लिए एक दूसरे से परामर्श किया करते। इसके अलावा, प्रत्येक पॉलीक्लिनिक में औसतन 18 से 19 डॉक्टर काम करते थे, जिससे क्लिनिक में अधिक समय तक मरीज़ों को देखा जा सकता था।
केवल डीडीआर ने ही स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली के रूप में इस तरह के समाजवादी पॉलीक्लिनिकों का निर्माण नहीं किया था। दो साल पहले, ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान ने अपने डोजियर संख्या 25 ‘पीपल्स पॉलीक्लिनिक्स: द इनिशिएटिव ऑफ़ द तेलुगु कम्युनिस्ट मूवमेंट’ में भारत के तेलुगु भाषी क्षेत्रों में कम्युनिस्टों द्वारा चलाए जा रहे पॉलीक्लिनिकों पर लिखा था। हमारे मौजूदा समय में इन पॉलीक्लिनिकों का सबसे महत्वपूर्ण सबक़ यह है कि देखभाल के लिए पैसे नहीं लिए जाते (जो विशेष रूप से भारत के लिए महत्वपूर्ण है, जहाँ स्वास्थ्य देखभाल पर लोगों को अपनी जेब से बहुत अधिक ख़र्चा करना पड़ता है)।
हमारे अध्ययन में शामिल इस पैराग्राफ़ को ज़रूर पढ़ें:
ग्रामीण क्षेत्रों और दूर दराज़ के गाँवों में निवारक देखभाल का विस्तार करने के लिए, ग्रामीण आउट–पेशेंट केंद्रों का निर्माण किया गया जहाँ लगभग तीन डॉक्टर होते थे; इन सुविधाओं की संख्या 1953 में 250 से बढ़कर 1989 तक 433 हो गई थी। कई शहरों में, चिकित्सक सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं में या अस्थायी क्षेत्रीय कार्यालयों में काम करते और निवासियों को परामर्श देते तथा उनके घरों का दौरा करते, जबकि मोबाइल डेंटल क्लीनिक सभी बच्चों को निवारक देखभाल प्रदान करने के लिए दूरदराज़ के गाँवों का दौरा करते। इसके अलावा, 1950 के दशक की शुरुआत में ग्रामीण इलाक़ों में डॉक्टरों की शुरुआती कमी को दूर करने के उद्देश्य से सामुदायिक नर्स का पेशा विकसित किया गया; सामुदायिक नर्सों की संख्या 1953 में 3,571 से बढ़कर 1989 तक 5,585 हो गई थी। इस व्यापक ग्रामीण बुनियादी ढाँचे ने जनसंख्या के कम घनत्व वाले इलाक़ों में भी शहरी क्षेत्रों जैसी चिकित्सा सेवाएँ उपलब्ध करवाने में मदद की।
2015 में, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसमें पाया गया कि दुनिया भर में 56 प्रतिशत ग्रामीण आबादी के पास स्वास्थ्य कवरेज की कमी है; और सबसे बड़ी कमी क्रमश: अफ़्रीका, लैटिन अमेरिका और एशिया में पाई गई। दूसरी ओर डीडीआर की समाजवादी परियोजना ने मात्र इकतालीस सालों (1949–1990) में एक ऐसी ग्रामीण स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली का निर्माण किया जिसमें हर निवासी सामुदायिक नर्स प्रणाली के माध्यम से पास के शहरों में स्थित पॉलीक्लिनिक से जुड़ा था। नर्सें गाँव के प्रत्येक निवासी की जानकारी लेकर शुरुआती डायग्नोसिस के आधार पर उपचार की सलाह देतीं या गाँव में डॉक्टर की साप्ताहिक यात्रा का इंतज़ार करतीं। 1990 में डीडीआर टूटकर एकीकृत जर्मनी का हिस्सा बना, और सामुदायिक नर्स प्रणाली को भंग कर दिया गया। 5,585 सामुदायिक नर्सों को हटा दिया गया, और देश की ग्रामीण स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली ध्वस्त हो गई।
मानागुआ के उत्तर–पश्चिम में स्थित लियोन शहर में, कवि अल्फोंसो कोर्टेस (1893-1969) रहते थे, जिन्हें 34 साल की उम्र में ‘पागल‘ घोषित कर दिया गया था और उन्हें बेडरूम में ज़ंजीर से बाँध दिया गया था। निकारागुआ के महान कवियों में से एक और, अर्नेस्टो कर्डेनल (1925-2020), कोर्टेस के घर के पास ही बड़े हुए थे। कर्डेनल कहते हैं कि अपने बचपन में वे क्रिश्चियन ब्रदर्स स्कूल से वापसी में कोर्टेस परिवार के घर के पास से गुज़रते थे और एक बार उन्होंने ‘पोएटा लोको‘ को ज़ंजीरों में बँधा देखा था। स्वास्थ्य देखभाल की कमी के कारण कोर्टेस को इस प्रकार का अपमान सहना पड़ा था। मानागुआ में कार्यरत एक डॉक्टर के पास जाते हुए एक बार कोर्टेस ने नागरोटे के रास्ते में एक हज़ार साल पुराना एक जिनीज़ारो पेड़ देखा; इस पेड़ के नाम ‘पोएटा लोको‘ ने उम्मीद की एक सुंदर कविता लिखी थी:
मैं तुमसे प्यार करता हूँ, बूढ़े पेड़, क्योंकि हर समय,
तुम रहस्य और नियतियाँ गढ़ते हो
शाम की हवाओं
या भोर के पक्षियों की आवाज़ में।
तुम सार्वजनिक जगह को सजाते हो,
मनुष्य से कहीं ज़्यादा दिव्य
सोच के साथ, अपनी गर्वीली और सुरीली शाखाओं के साथ
रास्ते दिखाते हुए।
जिनीज़ारो, तुम्हारे पुराने निशान
जैसा कि एक पुरानी किताब में लिखा है
कम करने के लिए समय क्या करता है;
लेकिन तुम्हारे पत्ते ताज़े हैं और ख़ुश हैं
और तुम उन ताज़े पत्ते को अनंत में लहराते हो
और मानव जाति आगे बढ़ती है।
स्नेह–सहित,
विजय।