प्यारे दोस्तों,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से नमस्कार।
9 अगस्त 2022 को सोशल मीडिया श्रीलंका की राजधानी कोलंबो से निकली तस्वीरों से पट गया। हज़ारों लोग राष्ट्रपति भवन में घुस गये और पूर्व राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षा को खदेड़ दिया। गोटाबाया राजपक्षा को सिंगापुर भागना पड़ा। मई महीने की शुरूआत में महिंदा राजपक्षा को भी प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देकर अपने परिवार सहित भागकर त्रिंकोमाली में स्थित नौसेना के अड्डे पर जाने को विवश होना पड़ा था। महिंदा राजपक्षा गोटाबाया के भाई हैं और पूर्व में श्रीलंका के राष्ट्रपति रह चुके हैं। राजपक्षा परिवार के खिलाफ जमा होता जनता का आक्रोश अपनी सीमा लाँघ गया और वर्षों से श्रीलंका के ऊपर कसा राजपक्षा परिवार का शिकंजा टूट गया।
एक महीना गुजर जाने के बाद विरोध–प्रदर्शनों के भावावशेष तो मौजूद हैं, लेकिन ये विरोध–प्रदर्शन अपना विशिष्ट प्रभाव छोड़ पाने में असफल रहे हैं। श्रीलंका के नये कार्यवाहक राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे ने देश में लागू आपातकाल की अवधि को बढ़ा दिया और सैन्य बलों को गाले फेस ग्रीन पार्क प्रदर्शन स्थल (इसे गोटागोगामा के नाम से भी जाना जाता है) को नेस्तनाबूद करने का आदेश दिया। विक्रमसिंघे का राष्ट्रपति बनना 2.2 करोड़ निवासियों के इस देश में जारी आंदोलन की कमजोरी और श्रीलंका के शासक वर्ग की ताकत का परिचायक है। श्रीलंका की संसद में विक्रमसिंघे की युनाइटेड नेशनल पार्टी के पास सिर्फ एक सीट है। इस अकेली सीट का प्रतिनिधित्व भी विक्रमसिंघे ही करते हैं। विक्रमसिंघे यह सीट भी 2022 में हार गये थे। इसके बावजूद भी वो 1993 से आज तक कुल मिलाकर छ: सरकारों में प्रधानमंत्री रहे हैं। वो एक बार भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाये हैं लेकिन शासक वर्ग की तरफ से सत्ता पर अपना नियंत्रण बनाये रखते हैं। इस बार राजपक्षाओं की श्रीलंका पोदुजाना पेरामुना (श्रीलंका जन मोर्चा) ने अपने 114 सासंदों (255 सदस्यों की संसद में) के बल पर विक्रमसिंघे को देश के सबसे ऊँचे पद पर बिठा दिया है। भले ही राजपक्षा परिवार ने औपचारिक रूप से इस्तीफा दे दिया है, लेकिन देश के मालिकों की तरफ से सत्ता पर उनका नियंत्रण अभी भी बरकरार है।
देश की आर्थिक हालात असहनीय हो जाने के कारण गाले फेस ग्रीन पार्क और अन्य इलाकों में लोगों ने दंगा किया। हालात इतने खराब थे कि मार्च 2022 में कागज की कमी होने के कारण सरकार को स्कूलों की परीक्षाओं को रद्द करना पड़ा था। कीमतें आसमान छू रहीं थीं। बिजली, ईंधन और खाद की कमी की वजह से उत्पादन में पैदा हुई समस्याओं के कारण लोगों के भोजन के मुख्य हिस्से, चावल, की कीमत 80 श्री लंकाई रुपये से बढ़कर 500 श्री लंकाई रुपये पहुँच गयी थी। देश के ज्यादातर हिस्सों में (मुक्त व्यापार क्षेत्रों को छोड़कर) दिन के आधे हिस्से के दौरान बिजली नदारद रहती थी।
श्रीलंका ने ब्रिटेन से अपनी आज़ादी सन् 1948 में हासिल की थी। मुख्यत: रबर, चाय और कुछ हद तक कपड़ों के निर्यात पर अधिकाधिक आर्थिक निर्भरता के कारण आज़ादी के बाद से ही देश का शासक वर्ग लगातार संकटों का सामना करता रहा है। इन संकटों के कारण 1953 और 1977 में सरकार गिर गयी थी। 1977 में देश के संभ्रांत वर्ग ने कीमतों पर मौजूद नियंत्रणों और खाद्य सब्सिडी को कम करके तथा विदेशी बैंकों और प्रत्यक्ष विदेशी निवेशों को देश में बेलगाम काम करने की अनुमति देकर अर्थव्यवस्था का उदारीकरण किया था। उन्होंने 1978 में देश के आर्थिक प्रबंधन को लोकतांत्रिक नियंत्रण के दायरे से बाहर निकालकर अपने कब्जे में लेने के लिये वृहद कोलंबो आर्थिक आयोग (Greater Colombo Economic Commission) की स्थापना की। इन नवउदारवादी कदमों ने राष्ट्रीय कर्ज़ में भारी इजाफा किया। श्रीलंका के राष्ट्रीय कर्ज़ में उतार–चढ़ाव आता रहा है लेकिन यह हमेशा ही खतरे के निशान से ऊपर रहा है। धीमी विकास दर के साथ–साथ पुराने कर्ज़ चुकाने के लिये अंतरराष्ट्रीय संप्रभु बॉन्ड (International Sovereign Bonds) जारी करने की आदत ने श्रीलंका की आर्थिक स्थिरता हासिल करने की सारी संभावनाओं को खारिज कर दिया है। दिसंबर 2020 में एस एंड पी ग्लोबल रेटिंग ने श्रीलंका की दीर्घकालिक संप्रभु क्रेडिट रेटिंग को B-/B से गिराकर CCC+/C कर दिया, जिसके नीचे एक ही ग्रेड D होता है जो कर्ज़ चुकता करने की असमर्थता को दर्शाता है।
श्रीलंका का शासक वर्ग अपने निम्न–मूल्य उत्पादों को बेचने के लिये विदेशी ग्राहकों और कर्ज़ के लिये विदेशी ऋणदाताओं पर निर्भरता को कम करने में असमर्थ, या शायद अनिच्छुक रहा है। इसके अतिरिक्त, पिछले कुछ दशकों के दौरान– विशेषकर कोलंबो में हुए 1983 के वीभत्स दंगों के पश्चात– श्रीलंका के अभिजात्यों ने सैन्य खर्च में भारी इजाफा किया और सैन्य बल का प्रयोग करने तमिल अल्पसंख्यकों का भीषण नरसंहार किया। श्रीलंका के 2022 के बजट में सेना के लिये 12.3% धनराशि आवंटित है। जनसंख्या के सापेक्ष सेना की संख्या में श्रीलंका (1.46%) सिर्फ इज़रायल (2%) से ही पीछे है। इस द्वीप के जिस उत्तरी और पूर्वी प्रदेशों में तमिल समुदाय बहुतायत में रहते हैं, वहाँ हर छ: लोगों के सापेक्ष एक सैनिक तैनात है। इस तरह का व्यय सार्वजनिक व्यय तथा सामाजिक जीवन के ऊपर बोझ है और श्रीलंकाई समाज के सैन्यीकरण का मार्ग प्रशस्त करता है।
श्रीलंका के विकराल राष्ट्रीय कर्ज़ के जिम्मेदार तो बहुत सारे लोग हैं, लेकिन इसकी मुख्य जिम्मेदारी शासक वर्ग और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के सिर पर है। 1965 के बाद से श्रीलंका ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से कुल सोलह बार सहायता माँगी है। जब संकट अपने चरम पर था तब मार्च 2022 में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के कार्यकारी बोर्ड ने सुझाव दिया कि श्रीलंका आयकर की दर बढ़ाये, सार्वजनिक उपक्रमों को बेचे और ऊर्जा सब्सिडी में कटौती करे। तीन महीनों के बाद, जब आर्थिक झटकों की वजह से एक गंभीर राजनीतिक संकट पैदा हो गया, तब अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के सदस्यों का कोलंबो दौरा निजीकरण की दिशा में ज्यादा ’सुधारों’ की माँग के साथ समाप्त हुआ। अमेरिका की राजदूत जूली चैंग ’ अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के साथ समझौते’ की प्रक्रिया में सहायता प्रदान करने के लिये राष्ट्रपति विक्रमसिंघे और प्रधानमंत्री दिनेश गुनावर्देना से मिलीं। लेकिन इन सबके बीच देश में लगे आपातकाल और राजनैतिक दमन के प्रति लेशमात्र भी चिंता जाहिर नहीं की गयी।
ये बैठकें दर्शाती हैं कि संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा चीन के ऊपर थोपे गये बहुमुखी युद्ध के भीतर श्री लंका को किस हद तक घसीटा गया है। श्री लंका के कर्ज़ संकट की जिम्मेदारी से श्री लंका के नेताओं और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष को बचाने के लिये चीनी निवेशों की मात्रा को बढ़ा–चढ़ाकर दिखाया गया है। आधिकारिक आँकड़ें बताते हैं कि श्री लंका के विदेशी कर्ज़ का मात्र दस प्रतिशत हिस्सा चीनी स्त्रोतों से आया है, जबकि सैंतालीस प्रतिशत हिस्सा पश्चिमी बैंकों और ब्लैक रॉक, जेपी मॉर्गन चेस, प्रुडेंशियल (अमेरिका), ऐश्मोर समूह एवं एचएसबीसी (ब्रिटेन), और यूएसबी (स्विट्जरलैंड) जैसी पश्चिमी निवेश कंपनियों से लिया गया है। इसके बावजूद, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और यूएसऐड श्री लंका के पास मौजूद चीनी कर्ज़ के बारे में बातचीत करने के लिये लगातार दबाव बना रहे हैं। लेकिन, जैसाकि द अटलांटिक में प्रकाशित एक जाँच रिपोर्ट ने दिखाया है, चीन के खिलाफ ऋण जाल कूटनीति का इस्तेमाल करने के द्वेषपूर्ण आरोप तथ्यात्मक रूप से निराधार हैं।
राष्ट्रपति भवन में काबिज़ विक्रमसिंघे का एजेंडा धूल चाट रहा है। वो वाशिंगटन की परियोजना के उत्साही समर्थक हैं और सेना तैयार करने के लिये अमेरिका के साथ एक स्टेटस ऑफ फ़ोर्सेस समझौता करने के लिये आतुर हैं। वो श्रीलंका को वाशिंगटन की मिलेनियम चैलेंज कॉर्पोरेशन (Millenium Challenge Corporation,MCC) का हिस्सा बनाना चाहते थे, जिसके तहत श्रीलंका को 480 मिलियन डॉलर का अनुदान मिलता। लेकिन पिछले चुनावों में विक्रमसिंघे की पार्टी का सूपड़ा साफ हो जाने का एक कारण जनता में इन दोनों नीतियों के खिलाफ जबर्दस्त रोष भी था। इन दोनों नीतियों का निर्माण श्रीलंका को एक चीन विरोधी गठबंधन का हिसा बनाकर आवश्यक चीनी निवेश को बंद करने के मकसद से किया गया है। बहुत सारे श्रीलंकाईयों को लगता है कि श्रीलंका को अमेरिका और चीन के बीच बढ़ते टकराव के भीतर घसीटने के बजाय उनके देश में मौजूद गहरे नस्लीय जख्मों को भरा जाना चाहिए।
मेरी दोस्त मलाथी डे एल्विस (1963-2021), जो कोलंबो विश्वविद्यालय में एक प्रोफेसर थीं, ने एक दशक पहले श्रीलंका की महिलाओं द्वारा लिखी गयी कविताओं का संकलन किया था। इस संकलन को पढ़ने के दौरान मेरा सामना 1987 में लिखी गयी सीथा रंजनी की कविता से हुआ। उनके शब्दों ने मेरे ऊपर गहरी छाप छोड़ी। मालथी की याद में और रंजनी की आशाओं का सहभागी बनने की कोशिश में, उनकी कविता ’शांति का स्वप्न’ के कुछ अंश प्रस्तुत हैं:
शायद हमारे अग्निदग्ध खेत अभी भी कीमती हैं
शायद भग्नावषेश बन चुके हमारे घरों को फिर से बनाया जा सकता है
नये जैसा अच्छा या उससे भी बेहतरीन
शायद शांति का भी आयात किया जा सकता है– एक एकमुश्त सौदे की तरह
लेकिन क्या युद्ध से पैदा हुई पीड़ा को कोई चीज मिटा सकती है?
भग्नावषेशों की तरफ देखो: ईंट–दर–ईंट
मानव हाथों ने अपनी मेहनत से उन घरों को बनाया
मलबों को अपनी आँखों से खंगालो
वहीं हमारे बच्चों का भविष्य आग की लपटों में समा गया था
क्या कोई खोयी हुई मेहनत की कीमत लगा सकता है?
क्या बर्बाद हो गयी ज़िंदगियों में दोबारा जान फूँकी जा सकती है?
क्या क्षत–विक्षत हो गयी भुजाओं और पाँवों को वापस बनाया जा सकता है?
क्या जन्मे और अजन्मे बच्चों के मस्तिष्कों के आकार को बदला जा सकता है?
हम मरे–
और मर रहे हैं,
हम फिर से पैदा हुए
हम रोये
और रोये जा रहे हैं,
हमने फिर से मुस्कराना सीखा
और अब–
हमें उन दोस्तों के साथ की तलाश नहीं है
जो हमारे रोने पर रोते हैं
इसके बजाय, हम एक ऐसी दुनिया की तलाश में हैं
जिसमें हम सब मिलकर हँसी बाँट सकें।
सस्नेह,
विजय