उनकी नियम-आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था दरअसल माफ़िया राज है: तेईसवां न्यूज़लेटर (2024)
प्यारे दोस्तों,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन
चमड़ी या त्वचा इंसान के शरीर का सबसे बड़ा अंग होती है। यह हमारे पूरे शरीर को ढक कर रखती है, कहीं यह कागज़ जैसी महीन होती है तो कहीं एक क्रेडिट कार्ड जितनी सख़्त। यह त्वचा जो हमें तमाम कीटाणुओं और दूसरी ख़तरनाक चीज़ों से बचाकर रखती है, हम इंसानों को उन तमाम ख़तरनाक हथियारों से नहीं बचा पाती, जो हमने ही समय-समय पर बनाए हैं। प्राचीन काल की धारदार कुल्हाड़ी जहाँ एक ज़ोरदार झटके से चमड़ी चीर सकती है, वहीं जनरल डाइनैमिक्स का बनाया हुआ 2000 पाउन्ड का एमके-84 ‘डम बॉम्ब’ सिर्फ चमड़ी ही बर्बाद नहीं करता बल्कि पूरे इंसानी शरीर की ही धज्जियाँ उड़ा सकता है। डम बॉम्ब गिरा देने के बाद कहाँ और किस पर फटेगा, कहा नहीं जा सकता। इस पर कोई नियंत्रण नहीं रहता। यह अनिर्देशित बम है, इसलिए इसे ‘गुरुत्व बम’, ‘मुक्त-पतन बम’ या ‘बहरे बम’ भी कहते हैं।
अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय (आईसीजे) के 24 मई के आदेश के बावजूद इज़रायली सेना लगातार ग़ज़ा के दक्षिणी हिस्सों पर और ख़ासतौर से रफ़ा पर बमबारी कर रही है। 27 मई को आईसीजे के आदेश की धज्जियाँ उड़ाते हुए इज़रायल ने रफ़ा की एक टेंट सिटी पर हमला कर पैंतालीस नागरिकों की हत्या कर दी। 9 मार्च को अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने कहा था कि रफ़ा पर अगर इज़रायल हमला करता है तो वो उनके लिए ‘रेड लाइन’ यानी हद पार करना होगा। लेकिन टेंट सिटी में हुए क़त्लेआम के बाद भी बाइडन प्रशासन इसी बात पर अड़ा है कि कोई भी हद पार नहीं की गई है।
28 मई को अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी के संचार सलाहकार जॉन कर्बी से पूछा गया कि अगर अमेरिकी सेना पैंतालीस नागरिकों की हत्या और दो सौ नागरिकों को घायल कर दे, तब अमेरिका का क्या जवाब होता। कर्बी ने जवाब दिया: ‘हमने इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान जैसी जगहों पर हवाई हमले किए हैं और अफ़सोस है कि उनमें नागरिकों की मौतें हुई हैं। हमने भी यही किया था।’ इस हालिया हत्याकांड में इज़रायल को बचाने के फेर में वाशिंगटन ने एक चौंकाने वाली बात मान ली। आईसीजे के फैसले के मुताबिक ‘ऐसा हो सकता है’ कि इज़रायल गाज़ा में नरसंहार कर रहा है, तो क्या इस लिहाज़ से यह भी मान लिया जाए कि अमेरिका ने भी इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान में यही किया है?
2006 में अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (आईसीसी) ने इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान में युद्ध अपराधों के होने की संभावना की जाँच शुरू की, फिर क्रमश: 2014 और 2017 में दोनों देशों में हुए अपराधों पर औपचारिक जाँच शुरू की। लेकिन इज़रायल और संयुक्त राज्य अमेरिका दोनों ने ही 2002 की रोम संविधि पर हस्ताक्षर नहीं किए थे जिसके तहत आईसीसी का गठन हुआ था। इस संविधि पर हस्ताक्षर करने की बजाय अमेरिकी कांग्रेस ने अमेरिकन सर्विस-मेम्बर्स प्रोटेक्शन ऐक्ट पारित किया — जिसे आम भाषा में ‘हेग इंवेजन ऐक्ट’ कहते हैं — इससे अमेरिकी सरकार को कानूनन अधिकार मिलता है कि वो अपने सैनिकों को आईसीसी के अभियोग से ‘हर संभव कोशिश’ कर सुरक्षित रखे। रोम संविधि का अनुच्छेद 98 कहता है कि अगर किसी देश ने किसी तीसरे पक्ष के साथ एक इम्यूनिटी एग्रीमेंट कर रखा है तो ऐसी स्थिति में पहला देश किसी आरोपी व्यक्ति को इस तीसरे पक्ष को सौंपने के लिए बाध्य नहीं है। इसलिए अमेरिकी सरकार अपने सैनिकों को बचाने के लिए तमाम राष्ट्रों को यह ‘अनुच्छेद 98 करार’ करने के लिए उकसाती है। इसके बावजूद आईसीसी अभियोक्ता फैटू बेनसूडा (जो इस पद पर 2012-2021 तक रहीं) ने सबूतों की जाँच की और अफ़ग़ानिस्तान में हुए युद्ध अपराधों पर 2016 में एक प्रारम्भिक रिपोर्ट जारी की।
अफ़ग़ानिस्तान 2003 में आईसीसी का सदस्य बना और इससे आईसीसी और बेनसूडा को जाँच का अधिकार मिल गया। हालांकि अमेरिकी सरकार ने 2002 में अफ़ग़ानिस्तान के साथ अनुच्छेद 98 करार कर लिया था लेकिन फिर भी वो आईसीसी की इस जाँच पर लगातार हमला बोलता रहा। बेनसूडा और उनके परिवार को तो चेतावनी तक दे दी गई कि अगर उन्होंने जाँच जारी रखी तो उन्हें इसका निजी ख़मियाजा भुगतना पड़ेगा। अप्रैल 2019 में अमेरिका ने बेनसूडा का देश में प्रवेश करने का वीज़ा वापस ले लिया। इसके कुछ ही दिनों बाद आईसीसी जजों के एक पैनल ने अफ़ग़ानिस्तान में युद्ध अपराधों की जाँच जारी रखने की बेनसूडा की अर्ज़ी खारिज कर दी, उनका तर्क था कि इस तरह की कोई भी जाँच‘न्याय के हित में नहीं होगी’।
आईसीसी के कर्मचारी इस फैसले से निराश हुए और इसे चुनौती देना चाहते थे लेकिन उन्हें जजों का साथ नहीं मिला। जून 2019 में बेनसूडा ने अफ़ग़ानिस्तान में युद्ध अपराधों की जाँच को जारी न रखने के आईसीसी के फैसले के खिलाफ एक अपील दायर की। बेनसूडा की इस अपील के साथ अफ़ग़ानिस्तान के कई समूह जुड़े जिनमें अफ़गान विक्टिम्स फ़ैमिलीज़ एसोसिएशन और अफ़ग़ानिस्तान फोरेंसिक साइंस ऑर्गनाईज़ेशन भी शामिल थे। सितंबर 2019 में आईसीसी के प्री-ट्रायल चैम्बर ने फैसला किया कि अपील पर सुनवाई की जा सकती है।
अमेरिकी सरकार से बात की गई। 11 जून 2020 को उस वक़्त के अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल ट्रम्प ने कार्यकारी आदेश 13928 पर हस्ताक्षर कर दिए जिससे उनकी सरकार को आईसीसी अधिकारियों की संपत्ति फ्रीज़ करने और उनके तथा उनके परिवारों को संयुक्त राज्य अमेरिका में आने से रोकने का अधिकार मिल गया। सितंबर 2020 में यूएस ने गाम्बिया की नागरिक बेनसूडा और आईसीसी के वरिष्ठ राजनायिक और लेसोथो के नागरिक फाकिसो मोचोचोको पर प्रतिबंध लगा दिए। अमेरिकी बार एसोसिएशन ने इन प्रतिबंधों की निंदा की, लेकिन इन्हें वापस नहीं लिया गया।
बेनसूडा ने जब अपना पद छोड़ दिया तो अमेरिकी सरकार ने आख़िरकार अप्रैल 2021 में ये प्रतिबंध हटा लिए। फरवरी 2021 में बेनसूडा की जगह ली ब्रिटिश वकील करीम खान ने। सितंबर 2021 में आईसीसी अभियोक्ता करीम खान ने कहा कि वह अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान और इस्लामिक स्टेट के युद्ध अपराधों की जाँच तो जारी रखेंगे लेकिन ‘इस जाँच के दूसरे पहलुओं को प्राथमिकता नहीं’ देंगे। इस अजीब सी शब्दावली का आसान मतलब है कि आईसीसी संयुक्त राज्य अमेरिका और उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) के उसके सहयोगियों के युद्ध अपराधों की जाँच नहीं करेगा। आईसीसी को उसकी जगह दिखा दी गई।
अभियोक्ता खान ने एक बार फिर से दिखाया कि वो न्याय को कैसे आधा-अधूरा लागू करते हैं और ग्लोबल नॉर्थ के सत्ताधारी अभिजात वर्ग के पक्ष में खड़े हैं। फरवरी 2022 में रूस के यूक्रेन में अतिक्रमण के चार दिन बाद ही रूसी युद्ध अपराधों की जाँच शुरू कर दी गई। इसके एक ही साल में खान ने रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और उनके कमिश्नर फॉर चिल्ड्रन्स राइट्स मारिया लवोवा-बेलोवा की गिरफ़्तारी वॉरन्ट के लिए अपील कर दी और ये वॉरन्ट मार्च 2023 में जारी भी कर दिए गए। इन दोनों पर ख़ासतौर से यूक्रेन के अनाथालयों और बालगृहों से बच्चों को अगवा करके रूस ले जाने की साज़िश के आरोप थे। ऐसा कहा गया कि इन बच्चों को रूस में ‘गोद दिया’ जाता था। यूक्रेन और खान ने कहा कि यह ‘एक अपराध स्थल है’।
इज़रायल जिस तरह फिलिस्तीनियों पर निर्मम हमले कर रहा है उसके लिए खान कभी इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल नहीं करेंगे। 15,000 फिलिस्तीनी बच्चों की हत्या (उन्हें एक युद्ध क्षेत्र से निकालकर किसी परिवार को ‘गोद’ नहीं दिया गया) के बाद भी खान इज़रायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू और उसके सैन्य सहयोगियों के ख़िलाफ़ गिरफ़्तारी वॉरन्ट हासिल करने में नाकाम रहे हैं। जब 2023 के नवंबर-दिसंबर में खान ने इज़रायल का दौरा किया तो उन्होंने ‘हद पार करने’ के बारे में चेतावनी दी लेकिन चूंकि ‘इज़रायल के पास प्रशिक्षित वकील हैं जो कमांडरों को सलाह दे रहे हैं’ इसलिए वो अंतर्राष्ट्रीय मानवतावादी कानूनों के उल्लंघन होने से रोक सकते हैं।
मई 2024 तक ग़ज़ा पर इज़रायली बर्बरता इस हद तक बढ़ गई कि आईसीसी को मजबूरन इस मुद्दे को उठाना पड़ा। आईसीजे के आदेश आए, ग्लोबल साउथ की तमाम सरकारों ने इन हमलों की भरसक निंदा की और एक के बाद एक कई देशों में बड़े-बड़े विरोध प्रदर्शन होते गए, इन सबकी वजह से आईसीसी को कदम उठाने ही पड़े। 20 मई को खान ने एक प्रेस वार्ता की और कहा कि उन्होंने हमास के नेताओं — याह्या सिनवार, मोहम्मद दियाब इब्राहिम अल-मसरी और इस्माइल हनियेह — और साथ ही इज़रायली प्रधानमंत्री नेतन्याहू और उनके सेना प्रमुख यौव गैलेन्ट के ख़िलाफ़ गिरफ़्तारी वॉरन्ट के लिए अर्ज़ी दे दी है। इज़रायल के अटॉर्नी-जनरल गली बहाराव-मियारा ने कहा कि नेतन्याहू और गैलेन्ट पर लगाए गए आईसीसी के आरोप ‘बेबुनियाद’ हैं और इज़रायल आईसीसी के गिरफ़्तारी वॉरन्ट को नहीं मानेगा। दशकों से संयुक्त राज्य अमेरिका की ही तरह इज़रायल भी अपनी कार्रवाईयों पर अंतर्राष्ट्रीय मानवतावादी कानून लागू होने की सब कोशिशों को सिरे से नकारता आया है। ‘नियम आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था’ ने हमेशा ही संयुक्त राज्य अमेरिका और उसके क़रीबी साथियों को बचाए रखा है, इस बचाए रखने की कोशिश के पाखंड का लगातार पर्दाफ़ाश होता रहा है। यही दोहरा चरित्र यूएस की ओर से चलाई जा रही इस वैश्विक व्यवस्था के विघटन की वजह बना।
खान के बयान में एक बहुत दिलचस्प बात छिपी हुई है: ‘मैं ज़ोर देकर ये बात कह रहा हूँ कि इस कोर्ट के अधिकारियों के सामने रुकावट खड़ी करने, उन्हें धमकाने और ग़लत तरह से प्रभावित करने की सभी कोशिशों को तुरंत बंद किया जाना चाहिए’। इसके आठ दिन बाद 20 मई को द गार्डियन ने दूसरे अखबारों के साथ मिलकर एक खोजी रिपोर्ट छापी जिससे पता चला कि इज़रायली ‘खुफ़िया एजेंसियाँ आईसीसी के वरिष्ठ अधिकारी पर नज़र रख रही थीं, उन्हें हैक कर रही थीं, उन पर दबाव बना रही थीं, बदनाम कर रही थीं और कथित तौर पर धमका रही थीं ताकि कोर्ट की जाँच को भटकाया जा सके’। इज़राइली खुफ़िया एजेंसी मोसाद के पूर्व प्रमुख योसी कोहेन ने खुद बेनसूडा (खान की पूर्ववर्ती) को परेशान किया और धमकाते हुए चेतावनी दी, ‘ऐसी चीज़ों में मत उलझो जिनसे तुम्हारी और तुम्हारे परिवार की सुरक्षा खतरे में पड़ जाए’। इसके साथ ही द गार्डियन में यह भी कहा गया कि ‘2019 और 2020 के बीच मोसाद अभियोक्ता के बारे में शर्मिंदा कर देने वाली सूचनाएँ जुटा रहा था और उनके परिवार में ख़ास रुचि लेने लगा था’। ‘रुचि लेने’ का मतलब है कि परिवार के बारे में जानकारी इकट्ठा करना जिससे उन्हें ब्लैकमेल और डराया जा सके, इस कोशिश में उनके पति फिलिप बेनसूडा पर एक स्टिंग ऑपरेशन करना भी शामिल था। ये तो बिल्कुल माफ़िया के तरीक़े हैं।
ख़ून और कानून की इन कहानियों के पीछे दौड़ते हुए मैं चेचन्या में पैदा हुए और एथेंस में ग्रीक भाषा में लिखने वाले जाज़रा खालिद की कविताएँ पढ़ता हूँ। उनकी कविता ‘ब्लैक लिप्स’ (काले होंठ) ने मुझे रुकने पर मजबूर कर दिया, इसके आखिरी हिस्से कितने प्रभावी और साफ़ दिल हैं:
आओ मैं तुम्हें इंसान बनाऊँ ,
तुम्हें, जज साहब, जो अपनी दाढ़ी से अपने गुनाह पोंछ लेते हो,
तुम्हें, ओ मान्यवर पत्रकार, जो मौत के सौदागर हो
तुम, ओ परोपकारी महिला, जो बिना झुके बच्चों के सर थपथपाती हो
और तुम जो ये कविता पढ़ रहे हो, अपनी उँगलियाँ चाटते हुए —
तुम सबको मैं अपनी देह भेंट करता हूँ कि इस पर झुककर दुआ कर सको
सच मानो
एक रोज़ तुम मुझे यीशु की तरह प्यार करोगेलेकिन तुम मुझे माफ करना साहिब —
मैं शब्दों के चार्टर्ड अकाउंटेंट से मोल-भाव नहीं करता
उन कला के आलोचकों से जो मेरे हाथ की खाते हैं
तुम चाहो तो मेरे पाँव धो सकते हो
इसे कोई निजी हमला न समझनामुझे गोलियों की क्या ज़रूरत अगर इतने शब्द हैं
मेरे लिए मरने को तैयार?
कौन से शब्द मर रहे हैं? न्याय, या शायद मानवतावाद भी? कितने शब्द उछाले जाते हैं ताकि अपराधी को सुकून मिले और निर्दोष घबरा जाए। लेकिन इन शब्दों से वो शब्द नहीं खामोश हो सकते, वो शब्द जो भयवाहता बयान करते हैं और इसकी तलाफ़ी चाहते हैं।
शब्द ज़रूरी हैं। उतने ही ज़रूरी हैं गुस्तावो कोर्टिनाज़ जैसे लोग, जिन्हें 15 अप्रैल 1977 को अर्जेंटीना की सैन्य तानाशाही सत्ता ने गिरफ़्तार कर लिया और फिर उन्हें कभी किसी ने नहीं देखा। वो 1976 और 1983 के दौरान सेना द्वारा मारे गए 30,000 लोगों में से एक बन गए। 30 अप्रैल को गुस्तावो को गिरफ़्तार किया गया था, उनकी माँ नोरा कोर्टिनाज़ (जिन्हें प्यार से नोरिता कहते थे) ऐसे ही गायब कर दिए गए दूसरे लोगों की माँओं में शामिल हो गईं जिन्होंने मिलकर ब्यूनस एरीज में प्लाज़ा डी मायो में सरकारी बंगले कासा रोज़ाडा के सामने विरोध प्रदर्शन किया। ये पहला प्रदर्शन था जो फिर लगातार दोहराया जाने लगा।
नोरिता मदर्स ऑफ़ प्लाज़ा डी मायो की सह–संस्थापक थीं। इस संस्था ने सैन्य शासन के झूठ की दीवार को बड़ी बहादुरी से चकनाचूर किया। हालांकि उनके बेटे का कभी पता नहीं चला, लेकिन उसकी खोज में नोरिता को अपनी आवाज़ मिली — वो आवाज़ जो इंसाफ़ की लड़ाई के लिए हो रहे हर प्रदर्शन में सुनाई देती थी और जो दुनिया भर की तकलीफ़ के बारे में बात करती थी और 31 मई से पहले के कुछ हफ़्तों तक लगातार करती भी रहीं, लेकिन 31 मई को उनका देहांत हो गया। 2020 में एक वीडियो संदेश में उन्होंने कहा था ‘हम फिलिस्तीन का इस तरह हड़प लिया जाना बर्दाश्त नहीं कर सकते’। ‘हम हर उस कदम के खिलाफ हैं जो फिलिस्तीनी लोगों की पहचान और वजूद को मिटाने के लिए उठाया जाएगा।’
नोरिता जाते-जाते हमारे लिए अपने ये अनमोल शब्द छोड़ गईं:
मैं चाहती हूँ कि जब सालों बाद मुझे कोई याद करे तो एक ऐसी महिला के रूप में याद करे जिसने अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया ताकि हम एक इज़्ज़त भरी ज़िंदगी जी पायें…मैं चाहती हूँ कि मुझे याद किया जाए उस हुंकार के साथ जो मैं हमेशा भरती हूँ और जो वो सब कुछ है जो मैं अंदर से महसूस करती हूँ, जिसका मतलब बस इतना है कि एक दिन उस दूसरी दुनिया का वजूद होगा। एक दुनिया जो सबकी होगी। इसलिए मैं चाहती हूँ कि मुझे एक मुस्कुराहट के साथ याद किया जाये और साथ ही ज़ोर से ये चिल्लाने के लिए भी: हम जीतेंगे, हम जीतेंगे, हम जीतेंगे!
स्नेह-सहित,
विजय।