डोसियर संख्या 58 (नवंबर 2022)
इस डॉजियर में मौजूद तस्वीरों को तस्वीरों की एक किताब की शक्ल में सहेजा गया है। तस्वीरों का यह संग्रह तमिलनाडु में AIDWA के सांगठनिक कार्यों की तत्कालीन सामग्रियों तथा कलाकृतियों, लामबंदियों की तस्वीरों और अखबारों से सहेजी गयीं नेताओं की तस्वीरों से लेकर संगठन की मासिक पत्रिका मगलिर सिंधानई के आवरणों जैसे स्त्रोतों पर आधारित है। यह कलाकृति AIDWA के कार्यों के प्रति एक श्रद्धांजलि है। यह कलाकृति क्रांतिकारी संगठनकर्म के रोजमर्रा के कामों में उलझे राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों वाली दुनिया में इस संघर्ष की सामूहिक स्मृति, जो अक्सर समय और संसाधनों के अभाव में खो जाती है, को संरक्षित करने, इसपर विमर्श करने और इसे बचाने के लिये ठहराव का एक लम्हा है। डॉजियर के आखिर में मौजूद तस्वीरों की इस किताब में शामिल हर तस्वीर, इस संघर्ष के अलग–अलग अंशों की गाथा बयान करती है।
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यह पोस्टर AIDWA तमिलनाडु की एक हालिया प्रदर्शनी में लगा था। इसमें मौजूद तस्वीर 1978 में ली गयी AIDWA तमिलनाडु की पहली राज्य समिति की सदस्याओं की है।
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धर्मनिरपेक्षता और महिलाएँ, AIDWA तमिलनाडु की भुतपूर्व उपाध्यक्षा मैथिली शिवरामन द्वारा लिखी गयी एक किताब, अज्ञात तारीख।
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जलाकर की जाने वाली दहेज–हत्याओं के खिलाफ AIDWA तमिलनाडु के एक पर्चे का आवरण। पर्चे में लिखा है, ‘हम आग का ग्रास बन रहे हैं; अब ज्वालामुखी फूटने दो!’, 1980 के दशक का उत्तरार्ध। स्त्रोत: AIDWA तमिलनाडु के पुरालेख।
प्रस्तावना
1960 के दशक की शुरूआत में 7.3 करोड़ की आबादी वाला दक्षिण भारतीय राज्य तमिलनाडु कृषिय परिवर्तन के दौर से गुजरा। यह कृषिय परिवर्तन खेती में नयी तकनीकों के आगमन से शुरू हुआ था। इसने नये विरोधाभासों को जन्म दिया और ग्रामीण समुदाय में मौजूद पुराने विरोधाभासों को पैना किया तथा पूरे राज्य की राजनीति पर गहरा प्रभाव डाला। इस अवधि के दौरान ये विरोधाभास उत्पीड़ित जातियों के खिलाफ संगठित अत्याचारों की कई घटनाओं के साथ–साथ महिलाओं के खिलाफ हिंसा में वृद्धि के रूप में प्रकट हुए।
इस पृष्ठभूमि में, तमिलनाडु में कम्युनिस्ट आंदोलन की महिला कार्यकर्त्रियों के एक समूह ने महिलाओं के शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ 1973 में जननायग मादर संगम (‘जनवादी महिला समिति’) नामक एक संगठन का गठन किया। आठ साल बाद, 1981 में, मादर संगम ने विभिन्न भारतीय राज्यों के वामपंथी महिला संगठनों के एक समूह में शामिल होकर उनके साथ अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति (AIDWA) की स्थापना की।
लैंगिक तथा जातिगत उत्पीड़न और वर्ग शोषण के खिलाफ महिलाओं के एक व्यापक वर्ग को संगठित करने के लिए कई संघर्षों का नेतृत्व करते हुए AIDWA ने एक मजबूत संगठन बनाया। वर्तमान में AIDWA की सदस्याओं की संख्या 1.1 करोड़ से भी अधिक है। ’अंतर–खंडीय संगठनकर्म’ AIDWA की संगठनात्मक रणनीतियों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। अंतर–खंडीय संगठनकर्म के तहत AIDWA समाज के भीतर विभिन्न खंडों में बँटी महिलाओं (जैसे उत्पीड़ित जातियों की महिलाओं या मुस्लिम महिलाओं) के विशिष्ट मुद्दों पर केंद्रित अभियानों को चलाती है और फिर इन अभियानों में अपनी सदस्याओं के साथ–साथ अन्य जन संगठनों को भी शामिल करती है।1 ये संघर्ष एक दूसरे से बिल्कुल अलग नहीं हैं। महिला मुक्ति के सशक्तिकरण की अभिलाषा इनको एकता के सूत्र में पिरोती है। इस तरह के बहुआयामी दृष्टिकोण के लिए जमीनी हकीकत और समाज के सभी जटिल मुद्दों (जैसे जातिगत और धार्मिक विभेद) के आलोक में महिलाओं की स्थिति की निरंतर विकासशील समझ की आवश्यकता होती है। इन जटिलताओं को समझने और अपने अभियानों के लिए बेहतर ढंग से तैयार होने के लिए नियमित और गहन जमीनी अनुसंधान AIDWA के लिये एक आवश्यकता बन गया है।
1990 के दशक में भारत के नवउदारवादी रुख ने मजदूरों और किसानों पर कहर बरपाया। भूख और अनिश्चितता ने जातिगत, सामाजिक पहचान और लैंगिक विभेदों पर पनपने वाले सामाजिक तनाव को बढ़ा दिया। इस अवधि के दौरान AIDWA द्वारा किए गये सर्वेक्षणों ने पाया कि ग्रामीण और शहरी इलाकों, दोनों में ही, विभेद की नयी रेखायें पैदा हुई हैं। AIDWA तमिलनाडु की नेत्री आर. चंद्रा ने संगठन के ऐसे कई सर्वेक्षणों को तैयार किया। ये सर्वेक्षण कृषिय अर्थव्यवस्था में बदलाव, जातिगत उत्पीड़न और भारतीय राजनीति के दक्षिणपंथी झुकाव का मुस्लिम महिलाओं के ऊपर पड़ने वाले विशिष्ट प्रभावों का अध्ययन करने के लिये तैयार किये गये थे। जिन वर्षों के दौरान ये सर्वेक्षण किये गये थे उस दौरान आर. चंद्रा ने AIDWA की तमिलनाडु राज्य समिति की सदस्या और संयुक्त सचिव के साथ–साथ AIDWA के तिरुचिरापल्ली जिला अध्यक्ष के रूप में कार्य किया था। ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान ने आर. चंद्रा से खास रूप से AIDWA के सर्वेक्षणों और लोकधर्मी शोधकर्म के बारे में बात की।
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मैथिली शिवरामन और 1968 में कीझवेनमनी गाँव में हुए दलित खेत मजदूरों के नरसंहार को देश की नज़र में लाने हेतु चलाये गये उनके अभियान का स्मरण करती एक पेंटिंग, 2021। स्रोत: लबनी जंगी/पीपुल्स आर्काइव ऑफ रूरल इंडिया।
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AIDWA तमिलनाडु की नेत्री के. पी. जानकी अम्मल, अज्ञात तारीख। स्त्रोत: AIDWA तमिलनाडु के पुरालेख।
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AIDWA तमिलनाडु नेत्री, पप्पा उमानाथ, अज्ञात तारीख। स्त्रोत: AIDWA तमिलनाडु के पुरालेख।
क्या आप हमें तमिलनाडु में AIDWA के उद्भव और संगठन में अपने कार्यों के विषय में और बता सकती हैं?
1973 में, कम्युनिस्ट आंदोलन की महिला कार्यकर्ताओं ने मादर संगम की स्थापना की। कॉमरेड पप्पा उमानाथ इसकी पहली अध्यक्षा और के.पी. जानकी अम्मल ( जिन्हें प्यार से अम्मा कहा जाता था) इसकी पहली सचिव बनीं। अम्मा एक गायिका, अभिनेत्री, प्रखर वक्ता थीं और स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कारावास की सजा काट चुकीं एक स्वतंत्रता सेनानी भी थीं। अम्मा तमिलनाडु के कम्युनिस्टों के लिए एक आदर्श हैं। पप्पा उमानाथ (इन्हें पोनमलाई पप्पा के नाम से जाना गया) ने 1940 के दशक में हुई प्रसिद्ध रेलवे हड़ताल में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। अम्मा, पप्पा और अन्य महिलाओं ने मादर संगम की स्थापना तीन उद्देश्यों के साथ की थी: स्त्री मुक्ति (पेन विदुधलाई), समानता (समाथुवम) और जनवाद (जननायगम)। मादर संगम का सदस्यता शुल्क केवल 50 पैसे था और कोई भी महिला इसकी सदस्या बन सकती थी। मैथिली शिवरामन, विजया जानकीरमन, कुंजितम भारती मोहन, शाज़ादी गोविंदराजन और जानकी रामचंद्रन अन्य महत्वपूर्ण संस्थापक सदस्याएँ थीं। भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन की इन कार्यकर्त्रियों ने भारत में वृहद वाम आंदोलन की छत्रछाया में एक स्वायत्त महिला संगठन की आवश्यकता महसूस की। उन्होंने मिलकर हजारों महिलाओं को संगठित किया और उनके अधिकारों के लिए संघर्ष किया। अम्मा और पप्पा ने दबे–कुचलों के बीच जाकर उनके मुद्दों को उठाया। यहाँ तक कि जो महिलाएँ शुरू में सड़कों पर उतरने और नारे लगाने से हिचकिचाती थीं, वो भी भारी संख्या में आंदोलन से जुड़ीं। जैसे–जैसे मादर संगम की सदस्यता धीरे–धीरे बढ़ी, समस्याओं का सामना करने पर महिलाओं ने संगठन से संपर्क करना शुरू कर दिया।
किसान, मजदूर और कई अन्य जन आंदोलनों के दौरान हासिल हुए अनुभवों ने मादर संगम की संस्थापक सदस्याओं को एक ऐसा आंदोलन शुरू करने के लिए प्रेरित किया जो महिलाओं के मुद्दों के लिये संघर्ष करे। इस आंदोलन की आधारशिला मादर संगम की संस्थापक सदस्यों की इस समझ पर रखी गयी थी कि महिलाओं का शोषण खासकर आर्थिक शोषण और वर्ग के अंतर्विरोधों से जुड़ा हुआ है। मादर संगम समाज के विभिन्न तबकों की महिलाओं का एक व्यापक गठबंधन था। इसमें खेतिहर मजदूरों से लेकर मध्यम वर्ग की महिलाओं तक की सहभागिता थी। ये सभी महिलाएँ समानता और मुक्ति के लिए लड़ रही थीं। महिलाओं के खिलाफ बढ़ती हिंसा और परंपराओं की आड़ में महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा को जायज ठहराये जाने की प्रवृत्ति ने इस आंदोलन की शुरुआत को उद्वेलित किया। 1970 के दशक में तमिल अखबारों में रसोईघर में आग लगने से महिलाओं की मौत की ’दुर्घटनाएँ’ और महिलाओं द्वारा रसोई के ईंधन से खुद को आग लगाने की खबरें रोजाना छपती थीं। हालाँकि ये सबको पता होता था कि ये वास्तव में दहेज हत्याएँ थीं। मादर संगम का पहला अभियान दहेज के मुद्दे पर था।
मैं 1977 में मादर संगम में शामिल हुई और 1979 में इसकी राज्य समिति की सदस्या बनी। उस दौरान हमने मुख्य रूप से दहेज के मुद्दों पर काम किया। हमने पीड़िताओं को न्याय और अपराधियों को सजा दिलाने की लड़ाई लड़ी। हमने दहेज उत्पीड़न की घटनाओं में हस्तक्षेप किया और दहेज हत्याओं को रोकने के साथ–साथ विधिक संस्थाओं को इस मुद्दे के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए एक सुसंगत कानून हेतु संघर्ष किया। 1981 में भारत के विभिन्न राज्यों के वामपंथी महिला आंदोलनों, जैसे कि तमिलनाडु में मादर संगम, ने मिलकर AIDWA का गठन किया। 1980 के दशक में हमने अन्य महिला समूहों के साथ मिलकर महिलाओं के खिलाफ बढ़ती यौन हिंसा (जिसमें बलात्कार भी शामिल था) और पीड़ितों के लिये न्याय का मार्ग प्रशस्त करने वाले कानून के अभाव के खिलाफ आंदोलन किया। हम चाहते थे कि कानूनी प्रावधान करके जिम्मेदारी का बोझ पीड़ित महिलाओं के ऊपर से हटाकर आरोपियों के ऊपर डाला जाये। भारतीय समाज की परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में यह एक जरूरी और महत्वपूर्ण कानूनी हस्तक्षेप था।
इन वृहद संघर्षों का हिस्सा होने के साथ–साथ AIDWA ने अपनी उपस्थिति वाले इलाकों में अन्य स्थानीय मुद्दों के लिये सक्रिय रूप से संघर्ष किया। गर्मियों में पीने के पानी की उपलब्धता, स्ट्रीटलाइटों, खाद्यान्न वितरण और सार्वजनिक बसों जैसे स्थानीय मुद्दों के लिए AIDWA ने लड़ाईयाँ लड़ीं। कामकाजी वर्ग की महिलाओं और उनके परिवारों की स्थिति में सुधार लाने के लिए ये मुद्दे बेहद महत्वपूर्ण थे। प्रशासन द्वारा इन सुविधाओं को प्रदान किये जाने की माँग को लेकर हमने स्थानीय स्तर पर महिलाओं को लामबंद किया। उदाहरण के लिए, पानी की किल्लत होने पर AIDWA ने पीने के पानी की माँग को लेकर नगर निगम के सामने महिलाओं को अपने घड़ों को तोड़कर विरोध करने के लिये संगठित किया। इन प्रक्रियाओं के माध्यम से हमने मजदूर वर्ग और गरीब महिला कार्यकर्त्रियों का नेतृत्व विकसित किया। खाने–पीने की चीजों के दामों में होने वाली वृद्धि सबसे ज्यादा महिलाओं को प्रभावित करती है। हमने खाने–पीने की चीजों के बढ़ते दामों के खिलाफ राज्य स्तर पर आंदोलन किये।
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महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा और मद्यपान की वजह से बढ़ती इस हिंसा के प्रति जागरुकता फैलाने के लिये AIDWA का तमिलनाडु–व्यापी मार्च, 2019। स्त्रोत: AIDWA तमिलनाडु के पुरालेख।
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चेन्नई और सलेम के बीच एक एक्स्प्रेसवे बनाने के लिये किसानों की जमीन के बलात् अधिग्रहण के खिलाफ संघर्ष को समर्पित AIDWA की मासिक पत्रिका मगलिर सिंधानई का आवरण। शीर्षक है: ‘यह हरित कॉरिडोर नहीं, बल्कि एक हरित बर्बादी है’, जुलाई 2018। स्त्रोत: AIDWA तमिलनाडु के पुरालेख।
तमिलनाडु में AIDWA के कार्यों में सर्वेक्षण अनुसंधान की एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है। क्या आप हमें AIDWA द्वारा कृषि–संबंधी मुद्दों पर किये गये राज्यव्यापी सर्वेक्षण के बारे में बता सकती हैं?
1990 के दशक में जब राज्य कृषि को दिये जाने वाले समर्थन से पीछने हटने लगा तब कृषि क्षेत्र और ग्रामीण क्षेत्रों ने अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के प्रभाव को तीव्रता से महसूस करना शुरू कर दिया। कृषि को दिये जाने वाले बैंक ऋण में भारी कमी, किसानों को तकनीकी मदद प्रदान करने वाली विस्तार सेवाओं की चरणबद्ध समाप्ति, सिंचाई हेतु सरकारी निवेश में कमी, सिंचाई के साधनों (नहरों, जलाशयों, आदि) के रखरखाव के लिये आवंटित होने वाली राशि में कटौती, और कृषि क्षेत्र को मिलने वाली सब्सिडी में कटौती के साथ–साथ व्यापार के उदारीकरण की वजह से अस्थिर कृषि बाजारों से बढ़ते संपर्क से एक गंभीर कृषि संकट पैदा हुआ और ग्रामीण रोजगार में गिरावट आयी। अस्थिर अंतर्राष्ट्रीय बाजारों से संपर्क और अनुबंध खेती के प्रसार के कारण फसल पद्धतियों में बदलाव आया। फसल पद्धतियों में बदलाव की वजह से श्रम–गहन फसलों की खेती में कमी आयी। इस संकट की मार से खेत मजदूर विशेष रूप से प्रभावित हुए। रोजगार के अवसर समाप्त होने की वजह से खेत मजदूरों को पलायन करने के लिये मजबूर होना पड़ा।
AIDWA की बहुत सी सदस्याएँ खेत मजदूर भी हैं। इन बदलावों ने सीधे तौर पर उनकी और उनके परिवारों की जिंदगी को प्रभावित किया। AIDWA की जिला समिति की बैठकों में सदस्याओं ने अपने समुदायों में दिख रहे बदलावों के विषय में चर्चाएँ कीं। उदाहरण के लिए, तिरुवरुर जिले में एक बैठक में AIDWA की एक सदस्या ने हमें बताया था कि धान (चावल) की खेती में कमी आने के कारण उनके गाँव में बेरोजगारी बढ़ी थी। उनके गाँव में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी ने निर्यात हेतु खीरा उगाने के लिए गाँव के किसानों से 300 एकड़ जमीन पट्टे पर ली थी। पट्टे पर दिये जाने से पहले उस 300 एकड़ उपजाऊ भूमि पर धान की खेती होती थी। धान एक अत्यधिक श्रम–गहन फसल है। जमीन को पट्टे पर लेने के बाद कंपनी ने खीरा उगाया, संसाधित किया और उसका निर्यात कर दिया। इन सारे कामों से केवल उन्तीस लोगों को रोजगार मिला। जब उस जमीन का उपयोग धान की खेती के लिए किया जाता था तब उस 300 एकड़ जमीन से बहुत सारे लोगों को रोजगार मिलता था और पूरे गाँव को आमदनी होती थी।
मैंने अन्य मुद्दों के साथ इस बात को दिल्ली में AIDWA नेतृत्व की बैठक में उठाया। उस समय की AIDWA महासचिव बृंदा करात ने तल्लीनता से हमारी बात सुनी और कहा कि तमिलनाडु राज्य में कृषि क्षेत्र में हो रहे बदलावों के बारे में और जानने की जरूरत है। इसके लिये हमने 1998-99 में एक सर्वेक्षण किया। AIDWA कार्यकर्त्रियों ने तिरुचिरापल्ली को छोड़कर तमिलनाडु के हर जिले में सर्वेक्षण किया। तिरुचिरापल्ली में मेरे विद्यार्थियों ने सर्वेक्षण में सहायता प्रदान की और मैंने आँकड़ों को सारणीबद्ध करके उनका विश्लेषण किया। सर्वेक्षण के दौरान प्राप्त अनुभवों ने AIDWA कार्यकर्त्रियों को उन अत्याचारों से अवगत कराया जिन्हें चुनौती देने की आवश्यकता थी। इस के साथ–ही–साथ इन सर्वेक्षणों ने AIDWA कार्यकर्त्रियों को इन अत्याचारों को खत्म करने वाले अभियानों का निर्माण करने के लिये अंतर्दृष्टि भी प्रदान की।
हमने तमिलनाडु के समुद्र तट के पास स्थित तिरुवरुर में अपना सर्वेक्षण शुरू किया। इसके बाद हमने दक्षिण–मध्य तमिलनाडु के भीतरी भाग में स्थित डिंडीगुल में जाकर सर्वेक्षण किया। सर्वेक्षणों के माध्यम से हमने पता लगाया कि फसल पद्धति में बदलाव हो रहा था और किसान खाद्यान्न पैदा करने वाली फसलों को छोड़कर चमेली, पपीता, अमरूद और अंगूर जैसी फसलों को उगा रहे थे। हमें ऐसे कई मामले देखने को मिले जहाँ इन बदलावों की वजह से बाल–श्रम में इजाफा हुआ था और महिलाओं द्वारा वो काम किये जा रहे थे जो वो पहले नहीं करती थीं।
डिंडीगुल जिले में हमने देखा कि जो फैसले पहले किसानों द्वारा लिये जाते थे, वो कंपनियों की मनमर्जी के अधीन हो गये थे। किसानों से बात करने पर उन्होंने हमें बताया कि कंपनियों ने खास फसलों, इस मामले में पपीता, की खेती के लिए उनके साथ अनुबंध किया था। मुझे पता नहीं था कि पपीते के अर्क का उपयोग सौंदर्य प्रसाधन उद्योग में किया जाता है। इसका प्रयोग खास तौर पर चेहरे के मॉइस्चराइजर और त्वचा की सफाई करने वाले उत्पादों को आयु–रोधी गुण प्रदान करने के लिये और बालों के उत्पादों को बनाने में किया जाता है। पपीते का अर्क बनाने की प्रक्रिया रबर के पेड़ों से रबर का रस निकालने के समान होती है। कंपनी किसानों को बीज मुहैया कराती है और कोयंबटूर से विशेषज्ञों को भेजती है जो बुवाई, तनों की कटाई और अर्क इकट्ठा करने के लिये गाँव में आते हैं। पपीते का अर्क निकालना किसानों के लिए बहुत फायदेमंद होता है। एक किसान ने मुझे बताया कि उसने अपनी पाँच एकड़ की पूरी जमीन में धान की खेती को छोड़कर पपीते के अर्क का उत्पादन शुरू कर दिया था। उस किसान ने न केवल पपीते के अर्क की खेती शुरू करने हेतु लिये गये कर्ज को चुकाया बल्कि वो अपने बेटे को एक निजी इंजीनियरिंग कॉलेज में भेजने और अपना घर बनाने में भी सफल हुआ। यह सब पपीते की खेती की बदौलत संभव हुआ। फसल पद्धति में आये इस बदलाव से भूस्वामी किसानों को फायदा हुआ। लेकिन पपीते के अर्क का उत्पादन करने के लिए कम लोगों की आवश्यकता होती थी और किसानों को कंपनी के विशेषज्ञों पर निर्भर रहना पड़ता था। इससे गाँव में उपल्ब्ध रोजगार में गिरावट आयी जिससे इस इलाके में सामाजिक असमानता गंभीर रूप से बढ़ी। मैंने इसके बारे में अखिल भारतीय किसान सभा की पत्रिका किसान संघर्ष में लिखा था।
डिंडीगुल में फसल पद्धति में आये बदलावों से न केवल बेरोजगारी बढ़ी; बल्कि कई मामलों में यह बाल–श्रम के उद्भव का कारण भी बनी। जब किसानों ने सैकड़ों एकड़ खेतों में धान की जगह चमेली की खेती शुरू कर दी तब चमेली का फूल तोड़ने के लिये बच्चों को इन खेतों में काम पर लगाया जाने लगा। घरों और मंदिरों में उपयोग के लिये चमेली के फूलों को तड़के सुबह ही मदुरै शहर के बाजार में पहुँचाना होता था। बच्चे सुबह 3 बजे ही उठकर करीब आधा घंटा दूर स्थित खेतों की तरफ फूल तोड़ने के लिये भागते थे। वो सात बजे तक फूल तोड़ने के पश्चात स्कूल जाते थे। त्यौहारों और शादियों के समय में जब फूलों की माँग ज्यादा होती थी तब बच्चे शाम को स्कूल से वापस आने के बाद खेतों में दोबारा फूल तोड़ने के लिये जाते थे। गाँव के लोग अपने बच्चों को सुबह 3 बजे जगाकर बिना दातुन कराये या मुँह धुलाये ही चमेली के खेतों में भेज देते थे। किसानों के लिए धान की तुलना में चमेली एक ज्यादा आकर्षक फसल थी। चमेली की फसल से किसानों को ज्यादा आय होती थी। ज्यादा कीमत मिलने के बावजूद चमेली के खेतों में बच्चों का काम करना बाल–श्रम का ही एक रूप था।
AIDWA के सर्वेक्षण ने डिंडीगुल के चमेली उद्योग में बाल–श्रम के अस्तित्व को उजागर किया। 1986 के बाल–श्रम अधिनियम के पारित होने के बाद से भारत में बाल–श्रम प्रतिबंधित है। इससे पहले पारित 1948 और 1952 के कानूनों ने बच्चों से कारखानों और खानों में काम लेने पर प्रतिबंध लगा रखा था। बहरहाल, भारत में कम से कम 1 करोड़ से अधिक बच्चे हीरा पॉलिशिंग, आतिशबाजी उत्पादन, कालीन बुनाई और घरेलू कार्यों जैसे कठिन और खतरनाक कामों में संलग्न हैं। बाल–श्रम को समाप्त करने के लिए बहुत सारे कदम उठाये गये हैं। इनमें से कुछ का नेतृत्व कामगार यूनियनों ने और अन्य का नेतृत्व गैर–सरकारी संगठनों ने किया है।
इस सर्वेक्षण की वजह से ही AIDWA ने डिंडीगुल में इस मुद्दे को उठाया। हमें खबर मिली कि चमेली के फूल तोड़ते समय कोबरा साँप के काटने से एक बच्चे की मौत हो गयी। हमने तुरंत जिला कलेक्टर से संपर्क किया और उनसे कहा कि इस मामले में हस्तक्षेप करना उनका कर्तव्य था क्योंकि बाल–श्रम प्रतिबंधित था और बच्चों से काम कराये जाने की बजाय उनको खेलने और पढ़ने का अधिकार मिलना चाहिए था। हमने किसानों और अभिभावकों से बात करके उनको बाल–श्रम के अत्याचार के प्रति संवेदनशील बनाने की कोशिश की। हमने अभिभावकों से कहा कि वो अपने बच्चों को काम पर न भेजें, क्योंकि उन्हें खेलने और पढ़ने की जरूरत है। हमने स्थानीय स्कूल के शिक्षकों से संपर्क किया और यह कोशिश की कि वो माताओं–पिताओं से बात करके बच्चों को स्कूल भेजने के लिये प्रोत्साहित करें। माताओं–पिताओं से बात करके बच्चों को स्कूल भिजवाने में हमें कुछ सफलता मिली, लेकिन परिवारों में गरीबी का आलम ऐसा था कि परिवारों की भूख मिटाने के लिए बच्चों की आय बहुत महत्वपूर्ण थी। सभी परिवार बाल–श्रम से प्राप्त होने वाली आय को खोने के लिये तैयार नहीं थे। यह ऐसा मुद्दा था जिसका निराकरण अल्पावधि में संभव नहीं था।
हमारे सर्वेक्षण से पता चला कि पुडुचेरी के पश्चिम में स्थित विलुप्पुरम जिले में गन्ने की खेती की श्रम प्रक्रिया में उल्लेखनीय परिवर्तन हुए थे। जहाँ अधिकांश भारी काम – जैसेकि गन्ने के बोझों को ढ़ोना और उन्हें ट्रकों पर लादने जैसे काम पहले पुरुषों द्वारा किये जाते थे, वहीं अब ये काम महिलाएँ कर रही थीं। जब हमने खेतों का दौरा किया तो महिला श्रमिकों ने हमें बताया कि वो ये काम मजबूरी में कर रही थीं। ये कमर–तोड़ काम महिलाओं के प्रजनन स्वास्थ्य के लिए गंभीर रूप से हानिकारक थे, और विशेष रूप से उनके गर्भाशय को हानि पहुँचा रहे थे।
कृषिय सर्वेक्षण करते समय हमने पाया कि आमतौर पर किसान नहीं चाहते थे कि उनके बच्चे किसानी को एक पेशे के रूप में अपनायें। वे कहते थे, ’मैं किसानों की पीढ़ी में अंतिम कड़ी हूँ। मैं नहीं चाहता कि मेरे बच्चे किसान बनें।’ जब हम उनसे पूछते थे, ’आपके बच्चे कहाँ पढ़ रहे हैं?’, तो वे जवाब देते थे कि वे उदुमलपेट कॉलेज या फलाँ इंजीनियरिंग कॉलेज में किसानी से इतर इंजीनियरिंग और डॉक्टरी जैसे पेशों के लिये प्रशिक्षण ले रहे हैं। राष्ट्रीय किसान आयोग (2004-2006), जिसकी अध्यक्षता एम.एस. स्वामीनाथन ने की थी, के अनुसार 49% किसान उस समय अपना पेशा छोड़ रहे थे। अपने सर्वेक्षणों के दौरान हमें यह स्पष्ट रूप से देखने को मिला। तमिलनाडु के कई हिस्सों में किसानों की अगली पीढ़ी नहीं है।
हमारे सर्वेक्षणों में कृषि के उदारीकरण के कारण फसल पद्धतियों में आ रहे बदलाव स्पष्ट रूप से दिख रहे थे। उदाहरण के लिए, हमने पाया कि किसानों ने खाद्य फसलों की खेती से गैर–खाद्य फसलों की खेती की तरफ रुख किया। इससे खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ती है और रोजगार के अवसर प्रभावित होते हैं। भारी मशीनीकरण और नई तकनीकों के प्रयोग के बावजूद धान की खेती में अत्यधिक श्रम की आवश्यकता होती है। एक अर्थशास्त्र की शिक्षिका होने के नाते मुझे पता है कि जब कोई उत्पादक एक ही उत्पाद पर निर्भर होता है तब उसे किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है या जब कोई किसान सिर्फ एक ही फसल उगाता है तो वह किस तरह की समस्याओं का सामना करता है। चूँकि उस फसल के विफल होने पर किसान को भारी आर्थिक नुकसान पड़ता है, इसलिये सिर्फ एक फसल पर निर्भरता को हतोत्साहित किया जाना चाहिए।
हमने पाया कि ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ती बेरोजगारी के कारण खेत मजदूरों के कई परिवार पलायन करने को मजबूर हुए। भारत की 2011 की जनगणना के अनुसार 2001 से 2011 के दौरान गाँवों से शहरों की तरफ होने वाले प्रवास में 51% की वृद्धि हुई। 2011 में गाँवों को छोड़कर शहरों का रुख करने वाले लोगों की संख्या 7.8 करोड़ थी, जिसमें से 55% महिलाएँ थीं। हालाँकि फसल पद्धतियों के कारण एक जिले से दूसरे जिले में होने वाले मौसमी प्रवास आम हैं, लेकिन हमारे सर्वेक्षण में पाया गया कि प्रवास का मुख्य कारण फसल पद्धति नहीं थी। हमने पाया कि लोग काम की तलाश में पलायन कर रहे थे, जिसे हम ’विपदाजनित प्रवास’ कहते हैं। जनगणना के आँकड़े भी इसी निष्कर्ष की पुष्टि करते हैं। AIDWA सर्वेक्षण ने ग्रामीण आजीविका की अनिश्चितता और इन मुद्दों के प्रति सरकार की उपेक्षा को स्पष्ट रूप से उजागर किया।
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AIDWA तमिलनाडु की हाल ही में आयोजित प्रदर्शनी में 1999 में अस्पृश्यता के खिलाफ हुई एक विशेष कॉन्फ्रेंस से जुड़ी खबरों का संग्रह। ये खबरें मगलिर सिंधानई में प्रकाशित हुईं थीं। स्त्रोत: AIDWA तमिलनाडु के पुरालेख।
AIDWA खेती पर उदारीकरण के प्रभावों को लेकर यह महत्वपूर्ण सर्वेक्षण करने के साथ–साथ जातिगत उत्पीड़न और हिंसा पर भी सर्वेक्षण कर रही थी। क्या आप हमें इस दूसरे सर्वेक्षण के बारे में बता सकती हैं?
1980 के दशक में AIDWA ने देश भर में सामाजिक उत्पीड़न के विभिन्न रूपों के खिलाफ चल रहे महिला संघर्षों में हस्तक्षेप किया। इनमें सिर्फ घरेलू हिंसा और बलात्कार के मामले ही नहीं, बल्कि दहेज उत्पीड़न के मामले भी शामिल थे। शादी की बातचीत के दौरान दूल्हे का परिवार विभिन्न सामानों की माँग करता है। उदारीकरण के युग में दहेज की माँगों में महंगी उपभोक्ता वस्तुएँ भी जुड़ती चली गयीं। अगर दहेज की माँगों को पूरा नहीं किया जाता है तो दूल्हे का परिवार दुल्हन को प्रताड़ित करता है। यह रेखांकित किया जाना चाहिए कि दहेज निषेध अधिनियम (1961) ने दहेज–प्रथा को समाप्त करने के लिये उसे अवैध करार दे दिया, लेकिन इसके बाद भी दहेज–प्रथा बहुत आम है। AIDWA महिलाओं को कानूनी सहायता प्रदान करती है, पुलिसिया और अदालती मामलों में न्याय के लिये लड़ती है और इन मुद्दों पर कानूनी सुधार के लिए राजनीतिक ताकतों के साथ काम करती है।
1990 के दशक तक यह स्पष्ट हो गया था कि सामाजिक उत्पीड़न के खिलाफ जारी इस हस्तक्षेप को महिलाओं के विभिन्न वर्गों, जैसे कि दलितों, मुस्लिमों, खेत मजदूरों और युवा महिलाओं को प्रभावित करने वाले उत्पीड़न के विशिष्ट रूपों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। 2001 में विशाखापत्तनम (आंध्र प्रदेश) में आयोजित AIDWA सम्मेलन में बृंदा करात और तत्कालीन महासचिव के कहने पर हमने महिलाओं के विभिन्न वर्गों की समस्याओं और मुद्दों के समाधान के लिए कई उपसमितियों के गठन का निर्णय लिया। विभिन्न वर्गों की महिलाओं को प्रभावित करने वाले अलग–अलग मुद्दों पर काम करने के लिए पहली बार AIDWA के पदाधिकारियों को उपसमितियों में विभाजित किया गया। हमने आने वाले वर्षों के दौरान एक दलित उपसमिति, एक अल्पसंख्यक उपसमिति और इस तरह की कुल ग्यारह उपसमितियों का गठन किया।
तमिलनाडु की तरफ से के. बालाभारती के साथ मैं दलित उपसमिति का हिस्सा थी। के. बालाभारती उस समय डिंडीगुल विधान सभा क्षेत्र से विधान सभा सदस्या थीं। तमिलनाडु में हमारा पहला काम अस्पृश्यता की व्यापकता और रूपों का अध्ययन करना और राज्य में दलितों के साथ होने वाले भेदभाव के स्वरूपों का आकलन करना था। उस समय मैं AIDWA की राज्य पदाधिकारी होने के साथ–साथ पुदुक्कोट्टई जिले की प्रभारी भी थी। पुदुक्कोट्टई अस्पृश्यता के विभिन्न स्वरूपों की मौजूदगी के लिए जाना जाता था। मैंने अखबारों में दलितों पर हो रहे अत्याचारों के बारे में पढ़ा था या सिनेमा में इन घटनाओं का चित्रण देखा था। लेकिन मुझे इन अत्याचारों की वीभत्सता का अनुभव तब हुआ जब इस काम की जिम्मेदारी मुझे सौंपी गयी। उनकी मौजूदगी और व्यापकता ने मुझे स्तब्ध कर दिया।
जाति व्यवस्था की हिंसा और वीभत्सता का वर्णन करना कठिन है। सर्वेक्षण करते समय मदुरै जिले में हमें एक ऐसी कहानी सुनने को मिली जिसने हमें झकझोर कर रख दिया। एक दलित महिला पानी से भरे धान के एक खेत के किनारे से गुजर रही थी। उच्च जाति का एक व्यक्ति विपरीत दिशा से उसकी ओर आ रहा था। उसने दलित महिला को वरपु (मेड़) से उतरकर चलने को कहा। जब दलित महिला ने उसकी बात को मानने से मना किया तो सवर्ण जाति के व्यक्ति ने उसके साथ मारपीट की और उसे पेशाब पीने के लिये मजबूर किया। हमारे समय में, सभ्य होने का दावा करने वाले एक समाज में, इस तरह की घटनाओं के होने की कल्पना करना मुश्किल है। लेकिन वास्तव में ऐसी घटनाएँ जाति–व्यवस्था की वीभत्स सच्चाई को सामने लाती हैं।
पुदुक्कोट्टई के मुख्य शहर के उत्तर में स्थित थेम्मावुर गाँव में हुई एक नृशंस घटना के पश्चात मेरे लिए सब कुछ स्पष्ट हो गया। उस समय गाँव में कुल 3,000 निवासी थे, जिनमें से 500 दलित थे। 1996 के बाद से इस कस्बे के दलितों ने देवी मारी अम्मन और काली अम्मन के दो मंदिरों में त्योहारों के दौरान ढोल बजाने के लिए मजबूर किये जाने से इंकार कर दिया था। शहर और मंदिरों को नियंत्रित करने वाली प्रभुत्वशाली जातियों ने कहा कि यह दलितों का प्रथागत दायित्व था और वो दलितों से ढोल बजवाने पर अड़े रहे। दलितों ने यह कहते हुए ढोल बजाने से इंकार किया था कि दलितों को मंदिरों में प्रवेश करने तक की अनुमति नहीं होने के बावजूद उनको ढोल बजाने के लिए मजबूर करना अपमानजनक था। थेम्मावुर में मुख्य दलित समुदाय परयार है। जब प्रभुत्वशाली जातियों ने उन्हें ढोल बजाने के लिए मजबूर करने की कोशिश की तो परयार समुदाय के युवाओं ने कहा, ‘ठीक है। हम ढोल बजायेंगे, लेकिन क्या आप हमें मंदिरों के अंदर देवताओं को पोंगल [एक प्रकार की खीर] चढ़ाने देंगे?’। परयारों के इस गरिमापूर्ण इंकार से प्रभुत्वशाली जातियों का एक बड़ा वर्ग क्रोधित हो गया। उन्होंने दलितों के खिलाफ डराने–धमकाने, उत्पीड़न और हिंसक हमलों का अभियान शुरू कर दिया। 17 मई 2000 को पुलिस इलाके से हट गयी और उच्च जाति के लोगों ने एक परयार गाँव में घुसकर हिंसा का तांडव किया। त्योहार का समय होने के कारण अधिकांश परयार परिवारों के घरों में उनके साथ रिश्तेदार भी रुके हुए थे। उन्होंने अनाज का भंडारण किया था और उत्सव के लिए कई तरह की तैयारियाँ की थीं। उच्च जाति के पुरुषों ने परयार समुदाय के लोगों को पीटा, उनके अनाज को नष्ट कर दिया, और फूस की झोपड़ियों को क्षतिग्रस्त कर दिया। परयार महिलाओं के ऊपर हिंसा का भीषण कहर बरपाया गया।
पुदुक्कोट्टई AIDWA इकाई ने मुझे हिंसा के ठीक बाद वहाँ बुलाया। मैंने वहाँ तुरंत जाने का फैसला किया क्योंकि मैं तिरुचिरापल्ली (लगभग एक घंटे या उससे दूर) में मौजूद थी। पुलिसकर्मी किसी को भी गाँव में घुसने नहीं दे रहे थे। मैंने उनसे कहा कि मैं एक प्रोफेसर और एक शोधकर्ता हूँ और मुझे अंदर जाने की जरूरत है; यह सच था, क्योंकि तब मैं उरुमू धनलक्ष्मी कॉलेज में अर्थशास्त्र पढ़ा रही थी। इस तरह मैं गाँव के भीतर घुस पायी। गाँव के भीतर प्रवेश करते ही मैंने चारों ओर खून के धब्बे फैले देखे। खून के इन धब्बों में भीषण हिंसा की अमानवीय दास्तानें छुपी हुईं थीं। परयार गाँव बर्बाद हो गया था। लोग गंभीर रूप से घायल हुए थे, और कई लोगों को स्थानीय अस्पताल में भर्ती कराया गया था। हमले के दौरान प्रभुत्वशाली जाति के पुरुषों ने एक महिला को धकेलकर जमीन पर गिरा दिया था और उसके पेट पर चढ़ गये थे, जिसकी वजह से आयी चोटों के कारण उस महिला का गर्भाशय निकालना पड़ा था। प्रभुत्वशाली जाति के पुरुषों ने बच्चों को भी नहीं बख्शा था। उन्होंने लड़कियों की पसलियां तोड़ दीं थीं और उनके खिलौनों को नष्ट कर दिया था।
मैं AIDWA पुदुक्कोट्टई की जिला सचिव शिव भानुमति, कार्यकर्त्रियों नूरजहाँ और रुक्मणी तथा स्थानीय सीपीआई (एम) इकाई के साथ गाँव में पहुँची। वहाँ पहुँचकर हमें पता चला कि पुलिस ने प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर), जिससे जाँच की शुरूआत हो सकती थी, दर्ज करने से इंकार कर दिया था। हमने पुलिस अधीक्षक और जिला कलेक्टर से बात की और उन्हें प्राथमिकी दर्ज करने के लिए मजबूर किया। AIDWA ने इस घटना पर अपनी रिपोर्ट पेश की। हमने महीनों तक मामले पर अपनी नज़र रखी, पीड़ितों को उनकी चोटों और उनकी संपत्ति के नुकसान के लिए मुआवज़ा दिलाने के लिए संघर्ष किया। इस घटना के ऊपर काम करना मेरे लिए वास्तव में एक आँखें खोल देने वाला अनुभव था।
इसके बाद पुदुक्कोट्टई में हिंसा की इस तरह की कई घटनाएँ हमारे संज्ञान में आयीं। एक ऐसा मामला आया जिसमें उच्च जाति के पुरुषों ने दलित इलाके में स्थित एक कुएँ में पेशाब कर दिया था। पुलिस ने प्राथमिकी दर्ज करने से इंकार कर दिया था। पुलिस द्वारा ऐसे मामलों में प्राथमिकी दर्ज करने से इंकार करना काफी आम हो गया है। इन अनुभवों के संदर्भ में, हमने दलितों के साथ होने वाले अस्पृश्यता और भेदभाव के विभिन्न रूपों की व्यापक समझ हासिल करने के लिए एक संगठन बनाने की आवश्यकता महसूस की। हमने महसूस किया कि दलित परिवारों का सर्वेक्षण किया जाना आवश्यक था। इसलिए हमने शोधकर्ताओं के एक दल को इकट्ठा किया, जिसमें अधिकांशत: AIDWA कार्यकर्त्रियाँ थीं। इस दल में जिला और तालुक (स्थानीय स्तर) की पदाधिकारियों के साथ–साथ राज्य के दलित समुदायों की कार्यकत्रियाँ शामिल थीं। हमने सर्वेक्षण के लिये एक प्रश्नावली और एक पद्धति तैयार की। इनको तैयार करने में भारतीदासन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर वेंकटेश अत्रेय ने हमारी मदद की। हमने तमिलनाडु राज्य को चार क्षेत्रों में विभाजित किया और AIDWA की सभी प्रमुख पदाधिकारियों को सर्वेक्षण के काम में शामिल किया। हमने कार्यकर्त्रियों को सर्वेक्षण हेतु प्रशिक्षित करने के लिए कार्यशालाओं का आयोजन किया। प्रश्नावली भरवाना आसान काम नहीं था, क्योंकि अस्पृश्यता और दलितों का उत्पीड़न व्यापक रूप से मौजूद होने के बाद भी अक्सर नकार दिया जाता है और इन्हें संवेदनशील मुद्दों के रूप में देखा जाता है। दलित उत्तरदाता अक्सर खुलकर बात करने से डरते थे, जबकि गैर–दलित साफ–साफ बोलने से कतराते थे। इसलिए, प्रश्नावली भरने के लिए जाने वाले कार्यकर्ताओं को उन मामलों के लिये प्रशिक्षित किया जाना जरूरी था कि जिसमें उत्तरदाताओं द्वारा भाग लेने से इंकार कर देने पर सीधे सवाल पूछे बिना जानकारी हासिल करनी थी।
हमने सर्वेक्षण का पहला चरण दक्षिण जोन के नाम से जाने जाने वाले तमिलनाडु के दक्षिणी क्षेत्र में पूरा किया। हम डिंडीगुल, मदुरै और पुदुक्कोट्टई सहित विभिन्न क्षेत्रों में सर्वेक्षण करने में सक्षम रहे। हमने सर्वेक्षण के नतीजों को प्रस्तुत करने के लिए पुदुक्कोट्टई में एक क्षेत्रीय सम्मेलन का आयोजन किया। इस सम्मेलन में हमने सर्वेक्षण में काम करने वाले लोगों के साथ–साथ हमारे आंदोलन के विभिन्न राजनीतिक नेताओं के साथ चर्चा की। हमने हर तालुक (इलाके) में अस्पृश्यता और भेदभाव के बहुत सारे मामलों को चिन्हित किया। हमने पाया कि दलितों की ठीक–ठाक आबादी वाले गाँवों में उन्हें स्थानीय मंदिरों में प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी। यहाँ तक कि त्योहार के दिनों और विशेष अवसरों पर, जब भक्त पारंपरिक रूप से देवताओं को पोंगल चढ़ाते थे, तब भी दलितों को मंदिरों में प्रवेश नहीं करने दिया जाता था। कुछ गाँवों में परीक्षाओं के समय या परीक्षाओं में अच्छा प्रदर्शन करने के बाद देवी–देवताओं की पूजा करने के लिए मंदिर में जाने की चाह रखने वाले दलित बच्चों को मंदिर में जाने से रोका जाता था। हमें सर्वेक्षण से पता चला कि मंदिरों में प्रवेश पाना दलित समुदायों के लिए एक प्रमुख मुद्दा था।
इसी तरह, लगभग पूरे दक्षिणी क्षेत्र में, मृतकों का दाह–संस्कार करना या उन्हें दफनाया जाना दलित परिवारों के लिए एक गंभीर मुद्दा था (कुछ हिंदू रीति–रिवाजों के अनुसार छोटे बच्चों को दफनाया जाता है, उनका अंतिम संस्कार नहीं किया जाता)। पश्चिमी तमिलनाडु के एक प्रमुख शहर कोयम्बटूर में गणपति नामक एक जगह है जहाँ दलितों के पास अपने मृतकों का दाह संस्कार करने या उन्हें दफनाने के लिए कोई स्थान नहीं है। मुझे अभी भी तंजावुर जिले की एक युवा माँ की दिल दहला देने वाली कहानी याद है जिसके बच्चे की मौत हो गयी थी। नवंबर का महीना था। मानसून का मौसम होने के कारण मूसलाधार बारिश हो रही थी। इस युवती का परिवार कावेरी नदी के किनारे रह रहा था। दलित परिवार से होने के कारण प्रभुत्वशाली जातियाँ उनके साथ भेदभाव कर रहीं थीं और उन्हें अपने बच्चे को दफनाने की अनुमति नहीं दे रही थीं। उन्होंने स्थानीय सरकारी अधिकारियों से मदद की गुहार लगायी, लेकिन किसी ने उनकी फरियाद नहीं सुनी। थक–हार कर उन्हें अपने बच्चे को अपने घर के पास नदी के किनारे दफनाने के लिए मजबूर होना पड़ा। लगातार हो रही मूसलाधार वर्षा ने मृत शरीर के ऊपर डाली गयी मिट्टी को बहा दिया। उस माँ ने हमें बताया कि उसने देखा कि उसके बच्चे की लाश को कुत्ते खा रहे थे। ऐसे नृशंस दृश्य पर कोई कैसे प्रतिक्रिया दे सकता है? यह बड़ा दर्दनाक था। यह इस तरह की अकेली कहानी नहीं थी। हम समझ गये कि यह एक ऐसा मुद्दा था जिसे हमारे राजनीतिक कार्यों में उठाये जाने की जरूरत थी।
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‘मंजोलाई चाय बागान के मजदूरों की नृशंस हत्या’ नामक AIDWA की एक रिपोर्ट। यह रिपोर्ट 1999 में मजदूरी में बढ़ोत्तरी, आवास की सुविधा और मातृत्व–अवकाश की माँग कर रहे 17 मजदूरों की पुलिस द्वारा हत्या के बाद प्रकाशित हुई थी, अज्ञात तारीख। स्त्रोत: AIDWA तमिलनाडु के पुरालेख।
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26 जुलाई, 2002 को पुदुक्कोट्टई (तमिलनाडु) में AIDWA के दक्षिण जोन के अस्पृश्यता उन्मूलन सम्मेलन में संगठन के सर्वेक्षण की रिपोर्ट प्रस्तुत करतीं आर. चंद्रा। स्त्रोत: AIDWA तमिलनाडु के पुरालेख।
क्या आप AIDWA की राजनीति में सर्वेक्षणों की भूमिका पर प्रकाश डाल सकती हैं?
सामाजिक और आर्थिक परिदृश्य की गहन समझ विकसित करने में सर्वेक्षणों ने AIDWA की काफी मदद की है। जातिगत उत्पीड़न पर हुए सर्वेक्षणों की मदद से हम अस्पृश्यता के विभिन्न स्वरूपों की पहचान करने में सक्षम हो पाये। इसके पश्चात AIDWA कार्यकर्त्रियों ने इन मुद्दों को उठाया और उनके खिलाफ लड़ने के लिए हर स्तर पर लामबंद हुईं। इस पूरी प्रक्रिया और इन संघर्षों में शामिल होने वाली बहुत सारी महिलाएँ AIDWA की सदस्य बनीं। सर्वेक्षणों और उनसे प्रेरित संघर्षों ने जाति उत्पीड़न की वास्तविकता के विषय में AIDWA सदस्याओं की समझ को गहरा किया, और हमें यह सुनिश्चित करने के लिए मजबूर किया कि प्रत्येक AIDWA समिति में कम से कम एक दलित महिला पदाधिकारी हो। इस प्रक्रिया के दौरान संगठन में नेतृत्व के विभिन्न स्तरों पर दलित महिलाओं ने प्रवेश किया और जाति उत्पीड़न के खिलाफ हमारी समझ तथा काम में और सुधार आया। यह हमारे लिये एक बेहद सकारात्मक बदलाव था।
अस्पृश्यता और कृषि संबंधी मुद्दों पर हुए सर्वेक्षणों से हासिल अनुभवों ने AIDWA को अनुसंधान को प्राथमिकता देना सिखाया। किसी मुद्दे को उठाने से पहले सर्वेक्षण करने की प्रथा हमारे काम का अभिन्न हिस्सा बन गयी है। हमने नमूनों का चुनाव (सैम्प्लिंग) करने के लिये और प्रश्नावलियों को तैयार करने के लिये एक ठोस अध्ययन पद्धति विकसित की है। तिरुचिरापल्ली में AIDWA की जिला समिति और ब्लॉक समितियों की सदस्याओं ने सर्वेक्षण प्रक्रिया का नेतृत्व किया। AIDWA ने सर्वेक्षण के निष्कर्षों को सूत्रबद्ध किया, इन निष्कर्षों के आधार पर उजागर हुए मुद्दों पर अभियान शुरू किया, और दहेज उत्पीड़न से प्रभावित लोगों के हित में समाधान सुनिश्चित किया।
समस्या चाहे जैसी भी हो, जब आप शिकायतों का निवारण करने के लिये जिम्मेदार अधिकारियों से मिलते हैं तो वो आपसे आँकड़े माँगते हैं। अपनी माँगों को आगे रखने से पहले उस क्षेत्र और मुद्दे से सम्बन्धित सर्वेक्षण कर लेना हमेशा अच्छा होता है। अधिकारी भले ही इन माँगों को लेकर कोई कदम उठायें या न उठायें, कम–से–कम वो उन समस्याओं की मौजूदगी के प्रति संवेदनशील तो बन ही जायेंगे। यह प्रक्रिया कार्यकर्ताओं के भीतर परिस्थितियों की एक बेहतर समझ विकसित करने में मदद करती है। उदाहरण के लिए, लोग शिकायत करते हैं कि किसी इलाके में सरकारी राशन की दुकान नहीं है, जो सब्सिडी वाला खाद्यान्न और रसोई का ईंधन प्रदान करती हो। AIDWA की कार्यकर्त्रियाँ उस क्षेत्र में सरकारी राशन की दुकान का उपयोग करने वाले परिवारों की संख्या का पता लगाने के लिये तुरंत एक सर्वेक्षण करती हैं। सर्वेक्षण से प्राप्त आँकड़ों और उस इलाके में राशन की दुकान की माँग को लेकर हम राशन की दुकान के लिये जिम्मेदार नागरिक आपूर्ति प्राधिकरण के पास जाते हैं। इससे सरकार के ऊपर आवश्यक कदम उठाने के लिये दबाव बनता है।
AIDWA की सदस्याओं को अब किसी प्रोफेसर के मदद की आवश्यकता नहीं रही है। जब वो कोई मुद्दा उठाती हैं तो वो अपने सवालों को खुद ही तैयार करती हैं और खुद ही सर्वेक्षण करती हैं। अध्ययन के महत्व को जानने वाली ये महिलाएँ AIDWA के स्थानीय कार्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गयी हैं। ये महिलाएँ शोधकार्यों का उपयोग संगठन के अभियानों में करती हैं, हमारी विभिन्न समितियों में इनके निष्कर्षों पर चर्चा करती हैं और इन्हें हमारे विभिन्न सम्मेलनों में प्रस्तुत करती हैं। जानकारी को साझा करने से अन्य संगठनों को भी कार्यकर्ताओं द्वारा किये जाने वाले शोध कार्यों का अनुकरण करने की प्रेरणा मिलती है।
AIDWA का उद्देश्य समाज के सामाजिक–आर्थिक चरित्र को बदलना है। AIDWA देश के अन्य सभी महिला संगठनों या क्लबों से बिल्कुल अलग है। उदाहरण के लिए, कन्या भ्रूण हत्या के मुद्दे पर काम करने वाला एक गैर–सरकारी संगठन (NGO) गर्भधारण पूर्व और प्रसवपूर्व निदान–तकनीक (PCPNDT) अधिनियम, 1994 को बेहतर ढंग से लागू करने की कोशिश कर सकता है। लेकिन वो इस कानून के दायरे में रहकर ही काम करेगा और उसका दृष्टिकोण सिर्फ एक मुद्दे तक सीमित रहेगा। AIDWA एक अलग दृष्टिकोण रखती है। हम कन्या भ्रूण हत्या जैसे मुद्दों को पूरे देश में उठाते हैं, लेकिन इसके बावजूद हमें इन जैसे एक या दो मुद्दों से परिभाषित नहीं किया जा सकता है। AIDWA ने 2005 में हरियाणा में एक सर्वेक्षण किया था, जिसमें महिलाओं के खिलाफ हिंसा की क्रूर वास्तविकता उजागर हुई। सर्वेक्षण में पाया गया कि दहेज प्रथा की व्यापकता, लैंगिक चयन के आधार पर गर्भपात का एक प्रमुख कारण है। समाज में पुरुषों और महिलाओं की संख्या के बीच असमानता होने के बावजूद भी वैवाहिक साथी का चयन करने में पुरुषों का वर्चस्व बना हुआ है। यहाँ तक कि राज्य के बाहर से महिलाओं को लाने के लिए दलालों का इस्तेमाल भी किया जाता है। AIDWA के सर्वेक्षण ने हमें दहेज के खिलाफ अभियान चलाने के लिए प्रेरित किया। इस अभियान के तहत शादियों में होने वाले खर्च को कम करने और दहेज के लेन–देन को रोकने के लिये संघर्ष किया जाता है। हम लड़कियों वाले परिवारों की सराहना और उनका सम्मान करना चाहते हैं और लड़कियों को अपने अधिकारों के लिए संगठित करने का प्रयास कर रहे हैं। सर्वेक्षण के परिणामों के आधार पर AIDWA ने हमारी संस्कृति में महिलाओं के अपमानजनक चित्रण के खिलाफ अभियान छेड़ा। कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ अभियान में महिलाओं के प्रति पितृसत्तात्मक सोच और दहेज के खिलाफ अभियान भी शामिल होने चाहिए। यह केवल एक कानूनी लड़ाई नहीं हो सकती है, क्योंकि वास्तविक समरभूमि हमारा समाज है। AIDWA के बारे में अनूठी बात यह है कि हम NGO, जिनके काम करने का दायरा अक्सर राज्य से अपील करने तक सीमित रहता है, की तुलना में बहुत व्यापक सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक ढ़ाँचे में काम करते हैं। हम चाहते हैं कि महिलाएँ अपने इतिहास की केंद्रबिंदु खुद बनें। हम चाहते हैं कि वर्तमान की वीभत्सता पर विजय पाने के लिये छेड़े गये साझे संघर्षों में हमें बाँटने वाले विभिन्न सामाजिक विभेदों (जैसेकि जाति और धर्म) को रेखांकित किया जाये।
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महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा और शराब के सेवन के खिलाफ AIDWA का तमिलनाडु–व्यापी मार्च, 2019। स्त्रोत: AIDWA तमिलनाडु के पुरालेख।
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मगलिर सिंधानई के आवरण पर हिंसा और शराब के सेवन के खिलाफ मार्च करती कार्यकर्त्रियों की तस्वीर। शीर्षक है: काँपती सड़कें और जन्म लेती आज़ादी, दिसम्बर 2019। स्त्रोत: AIDWA तमिलनाडु के पुरालेख।
Notes
1 अंतर–खंडीय संगठनकर्म के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त करने के लिये ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान द्वारा प्रकाशित स्त्री संघर्ष शृंखला के अध्ययन संख्या 2 को पढ़ें: https://dev.thetricontinental.org/hi/kanak_mukherjee/
ग्रंथावली
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Chandra, R. and Venkatesh Athreya. ‘The Drumbeats of Oppression’. Frontline, 10 June 2000. https://frontline.thehindu.com/other/article30254173.ece.
Djurfeldt, Göran, Venkatesh Athreya, N. Jayakumar, Staffan Lindberg, A. Rajagopal, and R. Vidyasagar. ‘Agrarian Change and Social Mobility in Tamil Nadu’. Economic and Political Weekly 43, no. 45 (8 November 2008). https://www.epw.in/journal/2008/45.
Karat, Brinda. Survival and Emancipation: Notes from Indian Women’s Struggles. New Delhi: Three Essays, 2005.
Kranz, Susanne. Between Rhetoric and Activism: Marxism and Feminism in the Indian Women’s Movement. Münster: LIT Verlag, 2015.
Tricontinental: Institute for Social Research. Kanak Mukherjee (1921–2005): Women of Struggle, Women in Struggle. Feminisms no. 2, 8 March 2021. https://dev.thetricontinental.org/studies-feminisms-2-kanak-mukherjee/.