साँझ: संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रभुत्व का क्षरण और बहुध्रुवीय भविष्य
डोज़ियर संख्या. 36 (जनवरी, 2021)
इतिहास अक्सर छलांग लगाता हुआ टेढ़े–मेढ़े रास्ते पर चलता है।
– फ़्रेडरिक एंगेल्स, दास वोल्क, सं. 16, 20 अगस्त 1859
1492 में, जब क्रिस्टोफ़र कोलंबस कैरिबियन पहुँचा, उसके बाद से इतिहास दो हिस्से में विभाजित हो गया। इससे पहले, किसी भी साम्राज्य की सत्ता पूरी दुनिया में नहीं फैली हुई थी। 1492 के बाद से प्रमुख यूरोपीय शक्तियाँ दुनिया पर शासन करने लगीं थीं और सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से, उन्होंने अपने शासन को नस्ल के नाम पर संगठित कर उसकी वैधता स्थापित कर दी। मानवता के लिए नस्लवाद का परिणाम विनाशकारी सिद्ध हुआ।
औपनिवेशिक शक्तियों को निरंतर प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। औपनिवेशिक बुद्धिजीवी ख़ुद को प्राचीन ग्रीस के प्रतीकों की तरह देखते थे, जैसे वो हरक्यूलिस की तरह राक्षस रूपी हाइड्रा से लड़ रहे हों। विद्रोह सब जगह हो रहे थे: समुद्र में, बाग़ानों में, पहाड़ों और जंगलों में, बंदरगाहों पर बनी सरायों में, उनकी औपनिवेशिक शक्ति की पहुँच से बाहर छूट गए जन–साधारण में और उनके चंगुल से बच निकले लोगों के द्वारा बनाई जा रही बग़ावत की जगहों में।[1] औपनिवेशिक बस्तियों से विकसित हुए पूँजीवाद ने जब दुनिया को अपने जाल में जकड़ना शुरू किया, तो कारख़ाने और शहर संघर्ष की प्रमुख जगहें बन गईं।
यदि कोई क्रांति ऐसी थी जिसने औपनिवेशिक काल के अंत की शुरुआत की और जिसने मज़दूरों के नेतृत्व वाली सभ्यता के बीज बोए, तो वो थी 1804 की हैती की क्रांति। ग़ुलाम अफ़्रीकियों ने उस समय की चार प्रमुख यूरोपीय शक्तियों को हराकर अपनी स्वतंत्रता हासिल की, और हैती को एक स्वतंत्र गणराज्य घोषित किया। लेकिन इस क्रांति को फ़ौरन समाप्त कर दिया गया। 1825 में, फ़्रांस ने हैती में बारह युद्धपोत भेजे और माँग की कि नया गणराज्य पहले के मालिकों को मुआवज़ा दे। आज की क़ीमतों के अनुसार, फ़्रांस ने उस समय हैती से 20 बिलियन डॉलर से भी अधिक की माँग की थी।[2]उनके स्वतंत्रता के दावे के बदले उन पर ऋण लाद दिया गया; नव–औपनिवेशिक वर्चस्व की यह रणनीति अगली शताब्दी के मुक्ति संघर्षों पर भी निर्दयतापूर्वप से थोपी जानी थी।
जर्मनी के फ़ासीवादी, औपनिवेशिक प्रथाओं को यूरोप में स्थापित करने की कोशिशें कर रहे थे। इन प्रयासों के परिणामस्वरूप द्वितीय विश्व युद्ध हुआ जिसमें यूरोपीय शक्तियों के बीच भयानक संघर्ष हुआ। युद्ध का अंत होते–होते, यूरोपीय शक्तियाँ बहुत कमज़ोर हो चुकी थीं और संयुक्त राज्य अमेरिका, जो कि यूरोप की औपनिवेशिक कॉलोनियों में से सबसे शक्तिशाली कॉलोनी था, ने विश्व की नव–औपनिवेशिक व्यवस्था पर अपना वर्चस्व बना लिया। अब, लगभग अस्सी साल बाद, संयुक्त राज्य अमेरिका का वर्चस्व कमज़ोर होने लगा है। प्राचीन ग्रीस के प्रतीकों को दोहराते हुए अमेरिका के बुद्धिजीवी तर्क देते हैं कि चीन के उदय से अमेरिका को ख़तरा है और इसलिए युद्ध अपरिहार्य हो गया है; ‘थ्यूसीडाइड्स जाल‘ का यह सिद्धांत ‘हिस्ट्री ऑफ़ द पेलोपोनेसियन वॉर‘ पुस्तक में दिए गए तर्क –कि एथेंस के उदय ने स्पार्टा को अपने हितों की रक्षा के लिए एक आवश्यक युद्ध लड़ने के लिए प्रेरित किया था– पर आधारित है।[3] संयुक्त राज्य अमेरिका ने चीन और उसके लिए ख़तरा बन सकने वाले अन्य देशों के ख़िलाफ़ शत्रुतापूर्ण रवैया अपना रखा है। चीन, अमेरिका को दबाने का प्रयास नहीं कर रहा, बल्कि वह एक बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था की शुरुआत करने की दिशा में कार्यरत है। थ्यूसीडाइड्स जाल का सिद्धांत वर्तमान दुनिया में विभिन्न रूपों में जारी हाइब्रिड युद्धों का अहम हिस्सा है।
हमारे डोज़ियर संख्य. 36 (जनवरी 2021) में हम संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा चीन के ख़िलाफ़ छेड़े गए नये शीत युद्ध के उद्भव और इस नये रणनीतिक परिदृश्य में इस्तेमाल किए जा रहे विभिन्न प्रकार के हाइब्रिड युद्धों का विश्लेषण करेंगे।
भाग 1: अमेरिकी सदी
अमेरिकी विदेश मंत्रालय के नीति नियोजन स्टाफ़ ने 1940 के दशक के उत्तरार्ध में एक ज्ञापन प्रसारित किया, जिसमें कहा गया था कि ‘सर्वाधिक शक्ति से कुछ भी कम चुनना हार चुनना होगा। सर्वाधिक शक्ति स्थापित करना ही अमेरिकी नीति का उद्देश्य होना चाहिए।‘[4] संयुक्त राज्य अमेरिका द्वितीय विश्व युद्ध के भीषण युद्ध के बीच से सबसे शक्तिशाली अर्थव्यवस्था के रूप में उभरा था, जिसके पास अक्षत आधारभूत संरचना तथा जिसके पास सबसे ख़तरनाक हथियार –परमाणु बम– से लैस शक्तिशाली सेना थी। अमेरिका ने इन सहायक परिस्थितियों का लाभ उठाकर दुनिया भर में अपना वर्चस्व क़ायम करने के लिए कई संस्थानों की स्थापना की; इनमें बहुपक्षीय राजनीतिक संस्थान (जैसे संयुक्त राष्ट्र संघ), बहुपक्षीय आर्थिक संस्थान (जैसे अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक), क्षेत्रीय सुरक्षा संस्थान (जैसे उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन, केंद्रीय संधि संगठन और दक्षिण पूर्व एशियाई संधि संगठन), और क्षेत्रीय राजनीतिक संस्थान (जैसे कि अमेरिकी राज्यों का संगठन) शामिल हैं।
उपनिवेशवाद–विरोधी संघर्षों से उभरे नये देशों को दबाने के लिए अमेरिका ने उग्र क़दम उठाया। कांगो के नव–निर्वाचित राष्ट्रपति पैट्रिस लुमुम्बा को 1961 में अमेरिका समर्थित षड्यंत्र में मार डाला गया। परिवर्तनकारी जन–आंदोलनों को निर्दयता से कुचला गया। इंडोनेशिया में, 1965 के तख़्तापलट के बाद, अमेरिका के समर्थन में काम कर रही सेना ने इंडोनेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी और उसके समर्थकों का सफ़ाया करने के लिए दस लाख से भी ज़्यादा लोगों को मार डाला।[5]
सोवियत संघ व अन्य कम्युनिस्ट देश, और इनके साथ तीसरी दुनिया में उपनिवेशवाद–विरोधी ताक़तों के कुछ हिस्से संयुक्त राज्य अमेरिका की महत्वाकांक्षाओं को रोकने का काम कर रहे थे। लेकिन 1990 में जब सोवियत संघ का विघटन शुरू हुआ, तो अमेरिका को रोक सकने वाली ताक़तें ख़त्म हो गईं, और अमेरिका का वर्चस्व लगातार बढ़ता चला गया। डिक चेनी की अध्यक्षता में, अमेरिका की रक्षा योजना पर सलाह समिति (1990) ने निम्नलिखित एजेंडा तय किया:
हमारा पहला उद्देश्य है, पूर्व सोवियत संघ में से या कहीं और से… किसी नये प्रतिद्वंद्वी के अविर्भाव को रोकना। यह [हमारी] नयी क्षेत्रीय रक्षा रणनीति का प्रमुख उद्देश्य है और इसके लिए ज़रूरी है कि हमें किसी भी प्रतिकूल शक्ति को किसी क्षेत्र में अपना प्रभुत्व स्थापित करने से रोकने का प्रयास करना होगा, जिसके संसाधन, उस पर संपूर्ण नियंत्रण उसे वैश्विक शक्ति बना सकने के लिए पर्याप्त हों।… हमारी रणनीति अब संभावित भावी वैश्विक प्रतियोगी के उद्भव को रोकने पर पुन:केंद्रित होनी चाहिए।[6]
2000 में, प्रोजेक्ट फ़ॉर अ न्यू अमेरिकन सेंचुरी (नयी अमेरिकी सदी परियोजना) ने “रीबिल्डिंग अमेरिकाज़ डिफ़ेन्सेज़ (अमेरिका के रक्षातंत्र का पुनर्निर्माण)” शीर्षक से एक रिपोर्ट प्रकाशित की। इस रिपोर्ट में लिखा है कि अमेरिका के पास ‘अमेरिकी सेना की निर्विवाद पूर्व–निर्धारित–श्रेष्ठता का सुरक्षित आधार होना चाहिए’।[7]
11 सितंबर, 2001 के अल–क़ायदा हमले से पहले अमेरिकी सेना पर किए जाने वाले ख़र्च में बड़े पैमाने पर लगातार वृद्धि हुई। 2002 में, राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश की संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति में लिखा था कि ‘संयुक्त राज्य अमेरिका की शक्ति को पार करने, या उसकी बराबरी करने की उम्मीद कर रहे हमारे संभावित विरोधियों के सैन्य निर्माण को रोकने में हमारी सेना पर्याप्त रूप से मज़बूत रहेगी‘।[8]
2019 आते–आते, 732 बिलियन डॉलर (यदि ख़ुफ़िया एजेंसियों पर किया गया गुप्त ख़र्च जोड़ा जाए तो 1 ट्रिलियन डॉलर) के सैन्य ख़र्च के साथ, अमेरिका का सैन्य ख़र्च अमेरिका के बाद सेना पर सबसे ज़्यादा ख़र्च करने वाले दस देशों के कुल ख़र्च से भी ज़्यादा हो चुका था।[9]
हथियारों की हर ज्ञात फ़ेहरिस्त से यही पता चलता है कि क़हर बरपाने में संयुक्त राज्य अमेरिका की क्षमता का कोई मुक़ाबला नहीं है; लेकिन अमेरिका का सुरक्षा समुदाय अब यह समझ चुका है कि वह बमबारी कर एक–आध देश को नष्ट तो कर सकता है, पर सिर्फ़ सेना के दम पर वो सभी देशों को अपने अधीन नहीं कर सकता है।
संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपनी वैश्विक शक्ति को बढ़ाने और संगठित करने के लिए ‘हब तथा स्पोक‘ (जैसे पहिये की सभी डंडे एक धुरी से जुड़े होते हैं) गठबंधन प्रणाली का उपयोग किया। इस प्रणाली के प्रमुख स्तंभों को स्पष्ट रूप से समझने की आवश्यकता है:
- संयुक्त राज्य अमेरिका हब बना, जबकि इसके प्राथमिक सहयोगी (यूनाइटेड किंगडम, फ़्रांस, जर्मनी, जापान व अन्य देश) इसके स्पोक थे। इन स्पोक्स के अलावा कुछ और देश अमेरिका के मातहत सहयोगी बने, जैसे कि कोलंबिया, मिस्र, इज़रायल, सऊदी अरब, थाईलैंड, व अन्य देश। ये सहयोगी अमेरिकी शक्ति की वैश्विक पहुँच के लिए आवश्यक हैं। ये सहयोगी वाशिंगटन से पूर्ण समर्थन के साथ अमेरिकी विरोधियों के ख़िलाफ़ काम करते हैं, और अमेरिकी सेना को जगह, ख़ुफ़िया जानकारियाँ और रसद (लॉजिस्टिकल) क्षमता प्रदान करते हैं। इन सहयोगियों को चुनौती देने वाली किसी भी ताक़त को अमेरिकी सेना द्वारा तुरंत कुचल दिया जाता है; इराक़ पर हमला (1991) और प्लान कोलंबिया (1999) ऐसे ही अमेरिकी आक्रमण के सबूत हैं।
- किसी ‘संभावित भावी वैश्विक प्रतियोगी के उद्भव को रोकने‘ –जो कि 1990 की अमेरिकी रक्षा योजना पर सलाह समिति का उद्देश्य था– के लिए गठबंधन प्रणाली का इस्तेमाल किया जाता है। पूर्वी यूरोप में नाटो का विस्तार कर और प्रशांत महासागर सीमा क्षेत्र में अमेरिकी सेना के गढ़ बनाकर चीन और रूस के ख़िलाफ़ दबाव बनाया गया। वेनेज़ुएला (1998) में हूगो शावेज़ के चुनाव, दक्षिण अमेरिका में नये वामपंथी नेताओं के उदय, और क्षेत्रीय एकीकरण की दिशा में नये प्रयासों (जैसे एएलबीए –बोलिवेरियन एलायंस फ़ॉर द अमेरिकाज़) को रोकना ज़रूरी था। इसलिए 2002 में शावेज़ की सरकार के ख़िलाफ़ सैन्य तख़्तापलट का प्रयास किया गया; इसके दो साल बाद, भारी बहुमत से चुने गए हैती के प्रगतिशील राष्ट्रपति, जॉन–बर्ट्रांड एरिस्टिडे को अमेरिका समर्थित तख़्तापलट में सफलतापूर्वक हटा दिया गया। इसके बाद हाइब्रिड युद्ध की शुरुआत हुई।
- पश्चिमी बहुराष्ट्रीय निगमों को लाभ पहुँचाने के लिए विकसित की गई वैश्विक वस्तु शृंखला को हर क़ीमत पर सुरक्षित रखा जाना चाहिए। इलेक्ट्रॉनिक क्रांति ने एक नये युग की शुरुआत की है जिसमें हर अठारह महीने से दो साल के भीतर कंप्यूटर की क्षमता दोगुनी हो रही है; 1955 और 2015 के बीच, कंप्यूटर की शक्ति एक खरब से भी अधिक गुना बढ़ी है। नयी उत्पादन तकनीकों के कारण पुरानी केंद्रीयकृत और बड़ी औद्योगिक कारख़ाना प्रणाली ख़त्म हो गई। अमेरिकी कांग्रेस ने कॉपीराइट संरक्षण के लिए बौद्धिक संपदा क़ानूनों को पहले सन 1976 में अट्ठाईस साल तक बढ़ा दिया और फिर सन 1998 में इसे सौ साल तक बढ़ा दिया। बौद्धिक संपदा की घातक प्रणाली 1994 में विश्व व्यापार संगठन ने भी स्वीकृत कर ली।
बड़े कारख़ानों का विखंडन कर उन्हें दुनिया भर के देशों में अलग–अलग पार्ट्स बनाने के लिए बाँट दिया गया और जस्ट–इन–टाइम उत्पादन प्रणाली विकसित की गई। इन प्रक्रियाओं का राष्ट्रीय संप्रभुता और ट्रेड यूनियनों पर बहुत गहरा और नकारात्मक प्रभाव पड़ा। यह सुनिश्चित करने के लिए कि इस व्यवस्था का कोई विकल्प स्थापित न हो सके, राजनयिक और सैन्य शक्ति का इस्तेमाल किया जाता है। वैश्विक वस्तु शृंखला में कच्चे माल की सप्लाई करने वाले ‘बलिदान क्षेत्रों’ में उठने वाले विरोध को कुचलने के लिए ड्रग्स के ख़िलाफ़ युद्ध और आतंक के ख़िलाफ़ युद्ध जैसे तंत्रों का उपयोग किया जाता है।
- डॉलर–वॉल स्ट्रीट कॉम्प्लेक्स, जो कि दशकों से आर्थिक और वित्तीय प्रणालियों पर हावी रहा है, का वर्चस्व बनाए रखने के लिए नयी वैश्विक मुद्राओं से मिलने वाली चुनौती को दबाया जाना चाहिए। इस तरह की मुद्राओं से डॉलर–वॉल स्ट्रीट कॉम्प्लेक्स को कई प्रकार की चुनौतियाँ मिल सकती हैं: उन्हें भंडार के रूप में और व्यापार के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है जिससे डॉलर की वैल्यू कम हो जाएगी; उनका उपयोग नये विकास बैंकों या नये निकायों द्वारा किया जा सकता है जिससे आईएमएफ़ और विश्व बैंक का वर्चस्व कम होने लगेगा; उनका इस्तेमाल पश्चिमी–प्रभुत्व वाले वित्तीय नेटवर्क से अलग नये वित्तीय संस्थानों में किया जा सकता है, जिससे यूएस–ट्रेजरी विभाग, वॉल स्ट्रीट–सिटी ऑफ़ लंदन–फ्रैंकफ़र्ट वित्तीय बैंकों और बेल्जियम–स्थित स्विफ़्ट सिस्टम जैसे मनी ट्रांसफ़र नेटवर्कों को नुक़सान होगा।
इराक के ख़िलाफ़ अवैध अमेरिकी युद्ध (2003) और ऋण संकट (2010) के बाद से ही संयुक्त राज्य अमेरिका की शक्ति और इसकी परियोजना की अवनति के पूर्वानुमान लगाए जा रहे हैं। अमेरिका की सेना किसी देश के संस्थानों को तो आसानी से नष्ट कर सकती है –जैसा कि 2003 में इराक़ में और 2011 में लीबिया में उन्होंने कर दिखाया था– लेकिन वो इन देशों की जनता को अपने अधीन नहीं कर सकती। लड़ाइयाँ तो जीती जा सकती हैं, लेकिन लम्बे युद्ध नहीं।
ऋण संकट ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था की आंतरिक कमज़ोरी को उजागर कर दिया; ऋण–प्रेरित उपभोक्तावाद ने भले ही ‘अमेरिकन ड्रीम‘ के मिथक को ज़िंदा रखा हो, लेकिन स्थाई वेतनों और नौकरियों के संरचनात्मक संकट से मज़दूर वर्ग और यहाँ तक कि मध्य वर्ग की ज़िंदगियाँ बड़े पैमाने पर प्रभावित हैं। 1979 और 2018 के बीच, अमेरिका की औसत वार्षिक प्रति घंटा मज़दूरी में मिलने वाले प्रति डॉलर में गिरावट आई है।[10]इन कमज़ोरियों के कारण संयुक्त राज्य अमेरिका के पतन पर एक बहस शुरू हो गई, हालाँकि अमेरिकी वर्चस्व की प्रबलता – सैन्य शक्ति, आर्थिक और वित्तीय शक्ति, और सांस्कृतिक या ’नरम’ शक्ति– बरक़रार रही। राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश, बराक ओबामा, और डोनाल्ड ट्रम्प अमेरिका की गिरती अर्थव्यवस्था को ठीक नहीं कर पाए, हालाँकि अन्य कारणों सहित, डॉलर के वैश्विक वर्चस्व ने उसे डूबने से बचाए रखा है।
2017 में राष्ट्रपति बनने के बाद अपने पहले भाषण में, ट्रम्प ने ‘पूरे देश में क़ब्र के पत्थरों की तरह फैले ज़ंग खाए कारख़ानों‘ के पास रहने वाले अमेरिका के मज़दूर वर्ग और मध्य वर्ग के ‘विनाश‘ की निंदा की। [11]ट्रम्प द्वारा पेश किया गया ‘विनाश‘ का समाधान निस्संदेह नस्लवादी था, उन्होंने बिना प्रमाण के प्रवासियों (और मैक्सिको) को और साथ ही बौद्धिक संपदा की चोरी और विदेशों में हो रहे सब्सिडी वाले उत्पादन (और चीन) को इसके लिए दोषी ठहराया। बाइडेन का एजेंडा भी बुश, ओबामा और ट्रम्प से बहुत अलग नहीं है: अमेरिकी अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण करना और अमेरिकी हितों के बचाव हेतु अमेरिकी शक्ति का उपयोग करना। बाइडेन के चुनाव अभियान की वेबसाइट पर लिखा था, ‘बाइडेन अमेरिका के लोगों की रक्षा करने में कभी भी संकोच नहीं करेंगे, चाहे इसके लिए बल प्रयोग करना पड़े। हमारे पास दुनिया में सबसे मज़बूत सेना है –और राष्ट्रपति के रूप में, बाइडेन यह सुनिश्चित करेंगे कि वह हमेशा ऐसे ही [सबसे शक्तिशाली] रहे।’[12]
संयुक्त राज्य अमेरिका एक ऐसी स्थिति की ओर अग्रसर है जहाँ निकट भविष्य में किसी भी मापदंड के अनुसार वह सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था नहीं रहेगा। क्रय शक्ति समता (यानी वस्तुओं और सेवाओं के वास्तविक भौतिक प्रवाह की समानता) में, चीन की अर्थव्यवस्था अमेरिका की तुलना में वर्तमान में 16% बड़ी है; आईएमएफ़ का अनुमान है कि, 2025 तक वह अमेरिका की अर्थव्यवस्था से 39% बड़ी हो जाएगी। हालाँकि किसी अन्य विकासशील देश की तरह, चीन की अर्थव्यवस्था के आकार को मौजूदा विनिमय दरों पर गणना करते हुए कम आँका जाता है, तब भी मौजूदा विनिमय दरों के आधार पर चीन की अर्थव्यवस्था अमेरिकी अर्थव्यवस्था के आकार की 73% हो चुकी है, और आईएमएफ़ का अनुमान है कि 2025 तक यह अमेरिकी अर्थव्यवस्था के 90% के बराबर पहुँच जाएगी।
दशक के अंत तक, चीन की जीडीपी (चाहे वह कैसी भी मापी जाए) अमेरिका से बड़ी हो जाएगी। इस बदलाव को अभी से महसूस किया जा सकता है; दुनिया भर के बाज़ार और मॉल भले ही संयुक्त राज्य अमेरिका के वातावरण जैसे लगते हों, लेकिन उनमें बिकने वाले सामान चीन में बने होते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो, संयुक्त राज्य अमेरिका भले ही आज भी चीज़ों को पेश करने की शर्तें तय करता हो, लेकिन उनमें लगने वाला सामान चीन ही उपलब्ध कराता है। धीरे–धीरे, सामान के अनुरूप ही उसे परोसा भी जाने लगेगा। दस साल पहले तक, चीन के पास ऐसे बहुत कम ब्रांड थे जिसकी दुनिया भर में ख्याति हो, लेकिन अब हुआवेई, टिक टोक, अलीबाबा, व अन्य ब्रांड न केवल दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं बल्कि आर्थिक मीडिया में रोज़ाना इनके बारे में चर्चा भी होती है।
इस तथ्य पर कई प्रकार की प्रतिक्रियाएँ हो रही हैं, जिनमें से दो विशेष रूप से चर्चित हैं। एक तरफ़ अमेरिका की महान शक्ति के ‘पतन‘ का अनुमान लगाया जा रहा है। इस प्रकार के साहित्य के अनुसार, वॉल स्ट्रीट के दबदबे और अमेरिकी फ़ेडरल रिज़र्व बैंक से ऋण सेवाएँ शुरू होने के बावजूद, अमेरिका की अर्थव्यवस्था अवनति की ओर अग्रसर है; इसके परिणामस्वरूप एक तरफ़ तो अमेरिका–संचालित संस्थानों की संरचनात्मक शक्ति क्षीण होती जाएगी और दूसरी तरफ़ देश का वर्चस्व बनाए रखने के लिए अमेरिकी सैन्य शक्ति का इस्तेमाल बढ़ेगा। इसके विपरीत, दूसरे तरह का साहित्य अमेरिका के पुनरुत्थान की उम्मीदों से भरा है। इस प्रकार के लेखन में आँकड़ों को नज़रंदाज़ कर दूसरी ‘अमेरिकी सदी‘ का अनुमान लगाया जा रहा है। इस प्रकार के साहित्य के अनुसार डॉलर की शक्ति चिरस्थाई है और अमेरिकी अर्थव्यवस्था लचीली है क्योंकि अमेरिकी कम्पनियाँ नये आविष्कारों द्वारा पुराने क्षेत्रों को नष्ट करके फ़िनिक्स की तरह फिर से ज़िंदा होने में रचनात्मक रूप से सक्षम हैं। यह माना जाता है कि अमेरिका की शक्ति कल की जनरल मोटर्स (एक पुरानी कार कंपनी जिसने अब वित्तीय सेवाएँ भी देना शुरू कर दिया है) नहीं, बल्कि आने वाले नये माइक्रोसॉफ़्ट पर आधारित है।
अमेरिका का पतन होगा या अमेरिका का पुनरुत्थान होगा, ये दोनों ही विचार पूर्ण रूप से ठीक नहीं हैं। अमेरिका चीन व अन्य देशों के वैज्ञानिक और तकनीकी विकास को रोकने में विफल रहा है, हालाँकि इस विकास से तकनीकी नवाचार पर अमेरिका के एकाधिकार को ख़तरा है। उच्च स्तरीय तकनीक और बौद्धिक संपदा किराए पर एकाधिकार से ही अमेरिकी अर्थव्यवस्था को शक्ति मिलती है। अमेरिका की विफलता उसके प्रभुत्व में आ रही कमज़ोरियों को व्यक्त कर चुकी है। अमेरिका का अभिजात वर्ग जानता है कि चीन की बढ़ती वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति अमेरिका के प्रभुत्व के लिए एक संभावित ख़तरा है। अमेरिका द्वारा चीन पर लगातार बढ़ते हमलों का मूल कारण यही है। 2015 में ओबामा द्वारा प्रायोजित ‘एशिया की धुरी‘ न केवल इस आशंका पर आधारित थी कि चीन की वैज्ञानिक प्रगति अमेरिका के लिए घातक होगी, बल्कि इसके पीछे इस बात का एहसास भी है कि चीन को आंतरिक रूप से नष्ट करने वाला कोई चीनी गोर्बाचेव नहीं होने वाला है।
चीन का विकास अमेरिका के वर्चस्व के लिए अस्तित्व की चुनौती खड़ी कर रहा है। जैसे 1492 के बाद से यूरोप ने दुनिया पर अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए नस्लवाद का सहारा लिया था, ठीक उसी प्रकार विश्व पर अपना दबदबा बनाए रखने के अमेरिका के सभी प्रयासों को नस्लवाद के संदर्भ में समझा जा सकता है।
अमेरिका की अवनति ऐतिहासिक है, लेकिन उसके पास आज भी ऐतिहासिक शक्ति का बड़ा भंडार मौजूद है; इसलिए अमेरिका अपनी अवनति को टालने की कोशिशें लंबे समय तक जारी रखेगा। यही कारण है कि माओत्से तुंग की पुस्तक ‘ऑन प्रोट्रैक्टेड वॉर (विलंबित युद्ध के बारे में)’ चीन में एक बार फिर सबसे अधिक उद्धृत की जाने वाली पुस्तकों में से एक बन गई है।
भाग 2: यूरेशिया में युद्ध
अप्रैल 2019 में, यूएस इंडो–पैसिफ़िक कमांड ने ‘रीगेन द एडवांटेज‘ (बढ़त फिर से हासिल करो) नामक एक दस्तावेज़ जारी किया, जिसमें ‘महान शक्ति स्पर्धा से मिल रहे ताज़ा ख़तरे‘ की ओर इशारा किया गया था। इसमें आगे कहा गया कि ‘…बिना वैध और ठोस पारंपरिक प्रतिरक्षा के, चीन और रूस अमेरिकी हितों पर हमला करने के लिए इस क्षेत्र में कार्रवाई कर पाने के योग्य बन जाएँगे‘। यूएस इंडो–पैसिफ़िक कमांड के चीफ़, एडमिरल फ़िलिप डेविडसन, ने ‘संयुक्त राज्य की प्रतिबद्धता प्रदर्शित करने और संभावित शत्रु का समाधान करने का सबसे विश्वसनीय तरीक़ा‘ सुझाते हुए अमेरिकी कांग्रेस से ‘अग्रिम पंक्ति में और बारी–बारी से काम करने वाले संयुक्त बलों’ पर ख़र्च बढ़ाने का सुझाव दिया। [13]ये रिपोर्ट विज्ञान की किसी काल्पनिक कहानी जैसी लगती है। इसमें प्रशांत महासागर के किनारे मिसाइलों और परमाणु हथियारों से लैस ‘लम्बे समय तक जीवित रह सकने वाले, [व] सूक्ष्मता से वार करने वाले नेटवर्क’ बनाने और पलाऊ से लेकर बाहरी अंतरिक्ष तक रडार लगाने का सुझाव दिया गया है। अमेरिका द्वारा बनाए जा रहे नये हथियार चीन और रूस पर अमेरिका का तटीय दबाव बढ़ाने में सहायक होंगे; इन हथियारों में हाइपरसोनिक क्रूज़ मिसाइलें शामिल हैं, जो लॉन्चिंग के कुछ ही मिनटों के भीतर चीनी और रूसी ठिकानों पर हमला करने में सक्षम हैं।
सोवियत संघ और कम्युनिस्ट राज्य प्रणाली के पतन के बाद, अमेरिका को उसकी शक्ति का विस्तार करने में चुनौती देने वाली ताक़तें भी ख़त्म हो गईं। उदाहरण के लिए, अमेरिका ने बिना किसी विरोध के इराक़ और यूगोस्लाविया पर बमबारी की, और एक ऐसी व्यापार और निवेश प्रणाली पर ज़ोर दिया जिससे उसके अपने सहयोगी देशों को फ़ायदा हो। 1990 का पूरा दशक संयुक्त राज्य अमेरिका की जीत के दशक की तरह मनाया गया। अमेरिका के राष्ट्रपति, जॉर्ज एच. डब्ल्यू. बुश और बिल क्लिंटन, अंतर्राष्ट्रीय बैठकों में कैमरों के आगे मुस्कराते हुए यह सुनिश्चित करते रहे कि हर कोई दुनिया को उनकी नज़रों से देखे, यानी ‘दुष्ट देश‘ (जैसे, ईरान और उत्तर कोरिया) उनकी बंदूक़ की नोक पर हैं, और चीन व रूस अमेरिकी नेतृत्व के प्रति प्रतिबद्ध हैं।
उसके बाद के दशकों में बहुत कुछ बदल गया है। चीन की आर्थिक वृद्धि शानदार रही है। चीन की प्रति व्यक्ति ख़र्च करने योग्य आय 2011-2019 के दौरान (यानी केवल एक दशक में) 96.6% बढ़ी है।[14]23 नवंबर 2020 को, चीन ने घोषणा की कि वहाँ राष्ट्रव्यापी ग़रीबी समाप्त हो चुकी है। चीन ने देश के भीतर बुनियादी ढाँचे का निर्माण करने और 2013 में शुरू हुए बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के माध्यम से दुनिया भर में सहायता देने के लिए उच्च स्तर का निवेश किया है। एक ओर जहाँ अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान, इराक़ और अन्य देशों में युद्ध करता हुआ कमज़ोर हो रहा है, वहीं चीन ने व्यापार और वाणिज्य की एक ऐसी प्रणाली विकसित की है जिसमें दुनिया के बड़े हिस्से उसके आर्थिक तंत्र से जुड़ गए हैं। कोरोनावायरस महामारी के दौरान, चीन ही सबसे पहले संक्रमण चक्र तोड़ने और लगभग सामान्य आर्थिक गतिविधि बहाल करने में सफल रहा। इसके परिणामस्वरूप, आईएमएफ़ का अनुमान है कि 2020-2021 की अनुमानित वैश्विक जीडीपी का लगभग 60% हिस्सा चीन की आर्थिक वृद्धि के कारण संभव हुआ होगा।
आने वाले नये समय के लिए केवल चीन का आर्थिक विकास ही काफ़ी नहीं होगा, बल्कि रूस के साथ चीन के गहराते रिश्ते भी अहम होंगे। बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के तहत चीन दक्षिणी एशिया, यूरोप और अफ़्रीका के देशों के साथ रिश्ते बना रहा है। रूस के साथ गहराते रिश्ते का मतलब है कि चीन उत्तरी एशिया में भी अपने पैर जमाने में सफल हो रहा है। पिछले पाँच सालों में हुए कई अहम आर्थिक और सैन्य समझौतों के साथ चीन और रूस के बीच नये संबंध बने हैं।
इक्कीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों से, चीन सहित दक्षिणी गोलार्ध के अन्य देश अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनों और दुनिया की जनता के वास्तविक एजेंडे के आधार पर क्षेत्रीय और बहुपक्षीय संस्थान बनाने की कोशिश कर रहे हैं। इन संस्थानों का मक़सद है सोवियत संघ के विघटन के बाद शुरू हुए अमेरिका के पूर्ण–वर्चस्व के दौर से आगे बढ़ना। इसमें कई क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर कई तरह की पहल हुई है; उदाहरण के लिए एशिया में शंघाई सहयोग संगठन (2001) और लैटिन अमेरिका और कैरेबियन में एएलबीए (2004) जैसे क्षेत्रीय मंच, और इब्सा –भारत–ब्राज़ील–दक्षिण अफ़्रीका– संवाद (2003) और ब्रिक्स –ब्राज़ील–रूस–भारत–चीन–दक्षिण अफ़्रीका– (2009) जैसे अंतर्राष्ट्रीय मंच। 2006 में हवाना में हुए गुटनिरपेक्ष आंदोलन के चौदहवें शिखर सम्मेलन में क्षेत्रवाद और बहुपक्षवाद पर ज़ोर दिया गया था। 2013 की ब्रिक्स बैठक में, नेताओं ने ईथेक्विनी घोषणा–पत्र जारी किया; ये घोषणा–पत्र ब्रिक्स देशों की ‘अंतर्राष्ट्रीय क़ानून, बहुपक्षवाद, और संयुक्त राष्ट्र संघ की केंद्रीय भूमिका‘ को बढ़ावा देने के साथ–साथ आपसी लड़ाइयाँ ख़त्म कर विकास के लिए ‘अधिक कुशल क्षेत्रीय प्रयास‘ करने की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
ब्रिक्स परियोजना के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रभुत्व वाले संस्थानों के विकल्प के रूप में नये बहुपक्षीय संस्थान बनाने के कई प्रस्ताव रखे गए। उदाहरण के लिए, विदेशी मुद्रा विनिमय की समस्या से जूझ रहे देशों को अल्पकालिक तरलता प्रदान करने के लिए आईएमएफ़ के पूरक के रूप में आकस्मिक रिज़र्व व्यवस्था बनाई गई और विश्व बैंक और एशियाई विकास बैंक को चुनौती देने के लिए ब्रिक्स बैंक का गठन किया गया। लेकिन ब्रिक्स परियोजना की सीमाएँ शुरुआत से ही स्पष्ट थीं: जैसे इसमें नवउदारवाद को चुनौती देने वाला कोई वैचारिक या नीतिगत विकल्प नहीं सोचा गया था; इसके अपने स्वतंत्र संस्थान नहीं थे (यहाँ तक कि आकस्मिक रिज़र्व व्यवस्था भी आईएमएफ़ के आँकड़े और विश्लेषणों का उपयोग करती थी); और अमेरिकी सेना के वर्चस्व का मुक़ाबला करने के लिए इसके पास राजनीतिक या सैन्य क्षमता नहीं थी।
एएलबीए जैसी क्षेत्रीय परियोजनाओं ने देशों के आपसी संबंध और नये संस्थान स्थापित कर एकीकरण के वैकल्पिक रूप विकसित किए हैं। एएलबीए के परिणामस्वरूप क्षेत्रीय स्तर पर कई नये संस्थान व बैंक बने हैं, जैसे यूनियन ऑफ़ साउथ अमेरिकन नेशंस (2004), कम्यूनिटी ऑफ़ लैटिन अमेरिकन एंड कैरेबियन स्टेट्स (2010), और क्षेत्रीय बैंक (बैंकोसुर)। इसके साथ–साथ एएलबीए ने कई और पहल की है; एक नयी वर्चुअल मुद्रा (सुकरे), एक नया संचार नेटवर्क (टेलीसुर) का निर्माण करने के साथ–साथ अमेरिकी शक्ति से गोलार्ध की मुक्ति का नया दृष्टिकोण विकसित किया है। यही कारण है कि संयुक्त राज्य अमेरिका एएलबीए के कई आंदोलनों को कुचलने का प्रयास कर चुका है; होंडुरास में 2009 में पुराने तरह का तख़्तापलट करवाने के बाद ब्राज़ील में 2016 में क़ानूनी नज़र से वैध तख़्तापलट करवाया। [15]
दक्षिण अमेरिका में सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रीय एकीकरण के ख़िलाफ़ इस तरह के हमले और दक्षिणी गोलार्ध को अधीन रखने की अमेरिका की नीतियाँ, कैरिबियन और लैटिन अमेरिकी राजनीति में संयुक्त राज्य अमेरिका की पिछली दो शताब्दियों से अपनाई जा रही नीतियों को परिभाषित करती हैं।
आंतरिक कमियों और भारत (2014) व ब्राज़ील (2016) में दक्षिणपंथी सरकारें आने के कारण ब्रिक्स परियोजना की क्षमता ख़त्म हो चुकी है। दोनों देशों ने किसी भी प्रकार के क्षेत्रवाद या बहुपक्षवाद के प्रति अनिच्छा व्यक्त करते हुए तुरंत अपनी विदेश नीति को वाशिंगटन के अनुरूप बदल लिया। अब किसी उप–साम्राज्यवाद की भी संभावना नहीं बची है, जैसा कि रुए मौरो मारिनी ने 1965 में तर्क दिया था, क्योंकि अब ब्राज़ील और भारत जैसे देशों के अभिजात वर्ग अपने–अपने क्षेत्र में अपनी नीतियाँ आगे बढ़ाने के बजाय अमेरिकी विदेश विभाग के पिछलग्गू बन कर ही संतुष्ट हैं।
ब्रिक्स ब्लॉक में प्रभावी नेतृत्व की स्थिति से ब्राज़ील और भारत के बाहर आने के साथ–साथ दक्षिण अफ़्रीका की राजनीतिक परिस्थियाँ भी बदल रही हैं। पूर्व राष्ट्रपति जेकब ज़ूमा ने कभी राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन का प्रतीक रही अफ़्रीकी राष्ट्रीय कांग्रेस को दमनकारी तंत्र में बदल दिया है। पिछले पाँच वर्षों से, ब्रिक्स परियोजना किसी भी महत्वपूर्ण एजेंडे को आगे बढ़ाने में सक्षम नहीं हुई है, हालाँकि एक ऐसे समूह –जिसमें दुनिया की सबसे बड़ी विकासशील अर्थव्यवस्थाएँ शामिल हैं– के रूप में इसका अस्तित्व अब भी बना हुआ है और कुछ सार्थकता भी। मतभेदों के बावजूद, चीन, भारत और रूस ने शंघाई सहयोग संगठन में भी आपसी सहयोग अब तक जारी रखा है।
चीन और रूस के बीच बढ़ते समझौतों की अहमियत को संयुक्त राज्य अमेरिका और अन्य पश्चिमी शक्तियों द्वारा जारी हमलों और ब्रिक्स ब्लॉक के संघर्ष के संदर्भ में समझा जाना चाहिए। चीन और रूस के बीच आपसी विवाद 1956 के चीन–सोवियत विवाद के साथ शुरू हुए थे, और दोनों देशों के बीच के तनाव सोवियत संघ के विघटन के बाद के वर्षों में भी जारी रहा। विघटन के तुरंत बाद तो कमज़ोर मॉस्को सहायता के लिए पश्चिम की ओर भी देखने लगा था। लेकिन 2008 में चीन और रूस ने लंबे समय से चले आ रहे सीमा विवाद को सुलझा लिया, और आज के समय के गहरे संबंधों की नींव रखी।
इस दौरान, अमेरिका के नीति निर्माता चीन को घेरने के लिए कमज़ोर रूस को अपनी परियोजना में शामिल करने की कोशिशें करते रहे। पश्चिम ने अपनी ताक़त का दुरुपयोग कर पूर्वी यूरोप में नाटो का विस्तार किया। इस तरह जर्मन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक के विघटन के दौरान किए गए वादे को तोड़कर अमेरिका रूस को अपने सामने झुकाना चाहता था। रूस पूरी तरह से हताश हो गया था जब पश्चिम ने सेवस्तोपोल (क्रीमिया) और टार्टस (सीरिया) स्थित रूस के केवल दो गर्म पानी के बंदरगाहों को तबाह करने की धमकी दी थी। रूस के ख़िलाफ़ पश्चिम के अन्य हमलों, जैसे 2014 में जी-8 से निष्कासन और संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा लगाए गए कठोर प्रतिबंधों ने रूसी हितों पर प्रहार किया और यूक्रेन जैसे अन्य मामलों में रूस की राष्ट्रीय अस्मिता को चोट पहुँचाई। यही कारण है कि रूस चीन के और क़रीब जाता रहा।
2019 में, चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन सेंट पीटर्सबर्ग इंटरनेशनल इकोनॉमिक फ़ोरम के मंच पर साथ आए। 1997 में एक वार्षिक व्यापार बैठक के मंच के रूप में इस फ़ोरम की स्थापना हुई थी, जिसके दायरे में अब एशिया और पश्चिम के साथ रूस के संबंधों का आकलन भी शामिल हो रहा है। शी और पुतिन ने चीन और रूस के बीच अंतरंग संबंधों की बात की; उन्होंने बताया कि वे दोनों 2013 से कम–से–कम तीस बार व्यक्तिगत रूप से मिल चुके थे। व्यापार बढ़ाने के कई समझौतों के साथ, दोनों नेताओं ने सीमा पार भुगतान को पुनर्जीवित करने के लिए डॉलर के बजाय रूबल और युआन में द्विपक्षीय व्यापार को बढ़ावा देने पर सहमति व्यक्त की। लेकिन वाशिंगटन केवल इसी बात से चिंतित नहीं है, उसकी चिंता के और भी कारण हैं। चीन और रूस दोनों देशों के बीच हथियारों की बिक्री में वृद्धि हुई है। चीन और रूस लगातार संयुक्त सैन्य अभ्यास कर रहे हैं: सितंबर 2018 में, रूस के एक तिहाई सैनिकों ने चीन–रूस वोस्टोक 2018 अभ्यास में भाग लिया था।[16]
अक्टूबर 2020 में, जब पुतिन से पूछा गया कि यदि चीन और रूस ‘सैन्य गठबंधन‘ कर लेते हैं तो क्या होगा, तो उन्होंने कहा, ‘हमें इसकी ज़रूरत नहीं है, लेकिन, सैद्धांतिक रूप से इसकी कल्पना करना बहुत हद तक संभव है’।[17]
राजनीतिक और सैन्य दृष्टि से रूस को कमज़ोर करना निश्चित रूप से नाटो के पूर्वी विस्तार का अहम हिस्सा है, लेकिन संयुक्त राज्य अमेरिका और उसके सहयोगियों का मुख्य आर्थिक निशाना चीन है। विशेष रूप से, दूरसंचार, सॉफ़्टवेयर, रोबोटिक्स, आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेन्स जैसे उपकरणों का उत्पादन करने वाली चीन की उच्च–तकनीकी फ़र्मों का विकास उन्हें खटक रहा है। चीन के लिए दुनिया की कार्यशाला होना एक बात थी, जहाँ उसके देश के श्रमिक बहुराष्ट्रीय निगमों के लिए काम करते थे जबकि देश की अपनी कंपनियाँ मध्यम–प्रौद्योगिकी क्षेत्र की रहीं; लेकिन दुनिया में एक प्रमुख तकनीकी निर्माता बनना, चीन के लिए बिलकुल अलग बात है। यही कारण है कि सिलिकॉन वैली फ़र्मों ने अमेरिकी सरकार को हुआवेई और जेडटीई पर प्रतिबंध लगाने के लिए उकसाया। अप्रैल 2019 में, यूएस डिफ़ेंस इनोवेशन बोर्ड ने कहा कि:
वायरलेस तकनीक क्षेत्र में व्यापक रोज़गार सृजन कर 5जी तकनीक का लीडर, अगले दशक में राजस्व के सैकड़ों अरबों डॉलर कमाएगा। 5जी अन्य उद्योगों में भी क्रांति लाने की क्षमता रखता है, क्योंकि स्वायत्त वाहनों (ऑटोनॉमस वेहिकल्ज़) जैसी तकनीकों को तेज़ी से बड़े डेटा ट्रान्स्फ़र होने से भारी लाभ मिलेगा। 5जी कई उपकरणों के बीच साझा होने वाले डेटा की मात्रा और गति बढ़ाकर इंटरनेट ऑफ़ थिंग्स (आईओटी) को बढ़ाव देगा, और फ़ाइबर–ऑप्टिक की जगह भी ले सकता है, जिस पर अब तक कई परिवार विश्वास करते रहे हैं। जो देश 5जी का मालिक होगा, वही इनमें से कई नवाचारों (इनवेशन्ज़) का मालिक होगा और बाक़ी दुनिया के लिए मानक तय करेगा। [18]
संभवत: वो देश अमेरिका नहीं होगा; डिफ़ेंस इनोवेशन बोर्ड भी इस बात को मानता है कि न तो एटी एंड टी और न ही वेरिज़ोन इस नये सिस्टम के लिए ज़रूरी ट्रांसमीटरों का निर्माण कर पाएँगे। वो देश स्वीडन (एरिक्सन) या फ़िनलैंड (नोकिया) भी नहीं हो सकते, जिनसे चीनी कंपनियाँ बहुत आगे हैं। यह अमेरिकी अर्थव्यवस्था की भविष्य की संभावनाओं के लिए एक गंभीर ख़तरा है; यही वजह है कि अमेरिकी सरकार चीन के विकास को बाधित करने के लिए हर तरीक़ा अपना रही है।
चीनी फ़र्मों के ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर लगे (बौद्धिक संपदा की चोरी या गोपनीयता के क्षरण जैसे) झूठे आरोप दुनिया भर में ग्राहकों को चीन में बना समान ख़रीदने से रोक नहीं पाए हैं। सरकारों पर हुआवेइ और ज़ेडटीई के प्रवेश को प्रतिबंधित करने या उनके समान की बिक्री बंद करने के लिए प्रत्यक्ष अमेरिकी राजनीतिक दबाव रहा है। अमेरिका का ये दबाव चीनी फ़र्मों की व्यावसायिक संभावनाओं को अवरुद्ध करता है। अमेरिका स्वीकार कर चुका है कि चीन का तकनीकी विकास अमेरिका की तकनीकी श्रेष्ठता के कारण उसे पिछले दशकों में मिले लाभ के लिए पीढ़ीगत ख़तरा है। चीन के तकनीकी विकास को रोकने के लिए ही अमेरिका राजनयिक दबाव से लेकर सेना का दबाव बनाने जैसे हर तंत्र का उपयोग कर चुका है; लेकिन इनमें से कुछ भी काम नहीं आ रहा है।
चीन अब दृढ़ संकल्प है। वह अपने तकनीकी लाभ को कम करने या नष्ट करने के लिए तैयार नहीं है। कोई विकल्प तब तक संभव नहीं होगा जब तक कि वास्तविकता को स्वीकार नहीं कर लिया जाता: कि कुछ क्षेत्रों में चीन की तकनीकी उत्पादन क्षमता पश्चिम से बेहतर नहीं तो उसके बराबर है, और वो धीरे–धीरे अन्य क्षेत्रों में भी बराबर तरीक़े से फैलेगी, और इस तथ्य में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे हथियारों का इस्तेमाल कर टाला जाना चाहिए या टाला जा सकता हो।
2001 में, चीन के तत्कालीन उपराष्ट्रपति हू जिंताओ ने कहा कि ‘बहुपक्षीयता चीन की विदेश नीति का एक महत्वपूर्ण आधार है‘।[19]
चीन ‘अमेरिकी सदी‘ का अनुसरण कर ‘चीनी सदी‘ बनाने की बजाय बहुध्रुवीयता के लिए प्रतिबद्ध है। अमेरिकी रणनीतिक दस्तावेज़ भी चीन का ये पक्ष दोहारते हैं, जैसे कि 2012 की यूएस नेशनल इंटेलिजेंस काउंसिल की रिपोर्ट में कहा गया था कि ‘2030 तक, कोई भी देश – चाहे वो अमेरिका हो, या चीन, या कोई अन्य बड़ा देश– सर्वोच्च शक्ति नहीं रहेगा‘। [20] इसके बजाय ‘शक्ति का प्रसार‘ होगा। लेकिन अमेरिका के रणनीतिक विश्लेषण समुदाय के अन्य लोग, जैसे कि काउन्सिल ऑफ़ फ़ॉरेन रेलेशंज़ के अध्यक्ष, रिचर्ड एन. हास, का तर्क है कि यदि वैश्विक व्यवस्था पर अमेरिका अपना ‘नेतृत्व‘ जारी नहीं रखता, तो विकल्प ‘चीन या किसी अन्य देश के प्रभुत्व का युग नहीं होगा, बल्कि अराजकता का युग होगा जिसमें क्षेत्रीय और वैश्विक समस्याएँ उन्हें हल करने की दुनिया की सामूहिक इच्छा और क्षमता को क्षीण कर देंगी‘।[21]हास का मानना है कि बहुध्रुवीयता, या अमेरिका के वर्चस्व में गिरावट आने से दुनिया में अराजकता फैलेगी। हास ने अपनी पुस्तक फ़ॉरेन पॉलिसी बिगिन्स ऐट होम (2013) में लिखा है, ‘अमेरिकी [लोग] ऐसी दुनिया में सुरक्षित और ख़ुशहाल नहीं होंगे’। उन्होंने आगे लिखा है कि ‘हमारा एक ही अंधकार युग काफ़ी था; हमें एक और अंधकार युग नहीं चाहिए‘।[22]
हास जैसे उदारवादियों या ट्रम्प जैसे नव–फ़ासीवादियों का यही मानना है कि अमेरिकी प्रधानता का कोई विकल्प नहीं हो सकता। बहुध्रुवीय भविष्य अपरिहार्य है, लेकिन अमेरिका का अभिजात वर्ग इसे समझने को तैयार नहीं है। इसीलिए वो नये शीत युद्ध, ख़तरनाक सैन्य हस्तक्षेप और सभी प्रकार के हाइब्रिड युद्ध करने पर उतारू है।
भाग 3: हाइब्रिड युद्ध
2015 में, एंड्रीयू कोरीब्को की ‘हाइब्रिड वॉर्स: द इनडायरेक्ट एडाप्टिव अप्रोच टू रिजीम चेंज‘ नामक एक किताब प्रकाशित हुई। सार्वजनिक और लीक हुए अमेरिकी सैन्य दस्तावेज़ों के माध्यम से, कोरीब्को ने अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती देने वाली सरकारों को उखाड़ फेंकने के लिए अमेरिका द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली विभिन्न रणनीतियों का अध्ययन किया। अमेरिकी सेना के स्पेशल फ़ॉर्सेज़ अनकन्वेन्शनल वॉरफ़ेयर प्रशिक्षण दस्तावेज़ के हवाले से, कोरीब्को हाइब्रिड युद्ध का उद्देश्य बताते हैं: ‘सरकार के सुरक्षा तंत्र (राष्ट्रीय स्तर की सेना और पुलिस) को उस हद तक कमज़ोर करना जहाँ सरकार की पराजय मुमकिन हो जाए‘। लेकिन अमेरिकी हितों को चुनौती देने वाली सरकार को हटाकर अमेरिका समर्थक सरकार बनाना हमेशा ज़रूरी नहीं होता: कोरीब्को लिखते हैं कि ‘हाइब्रिड युद्ध का मूल तत्त्व है प्रबंधित अराजकता’।[23] हाइब्रिड युद्ध का असल उद्देश्य होता है छोटे–छोटे विवाद खड़े करते रहना, जिससे देश में अव्यवस्था फैले। इसीलिए सूचना युद्ध और प्रतिबंध, हाइब्रिड युद्ध के प्रमुख हथियार हैं।
वर्तमान में ईरान और वेनेज़ुएला के ख़िलाफ़ सबसे भयानक अमेरिकी हाइब्रिड युद्ध चल रहा है; ये दोनों देश सूचना युद्ध और पेट्रोलियम बाज़ारों में फैली अव्यवस्था के कारण कमज़ोर हो चुके हैं। इन देशों को टूटने से अगर किसी चीज़ ने बचा रखा है, तो वो है इन देशों की अपनी सामाजिक और राजनीतिक प्रक्रियाओं से बना विश्वास। उदाहरण के लिए, वेनेज़ुएला में, प्रदर्शनों में और सामुदायिक स्तर पर होने वाले सामाजिक पुनरुत्पादन के व्यावहारिक कार्यों के लिए बड़ी संख्या में लोग एकजुट हो जाते हैं। ये एकजुटता उस देश की क्रांतिकारी प्रक्रिया के प्रति लोगों के विश्वास की पुष्टि करती है। हाइब्रिड युद्ध हमेशा सफल नहीं होते हैं, लेकिन –यदि वो सफल नहीं भी होते हैं– तब भी ये युद्ध लोगों के बीच बने बुनियादी सामाजिक रिश्तों को नष्ट कर सकते हैं।
कोरीब्को की किताब और अमेरिकी सरकार के दस्तावेज़ों के अध्ययन से हाइब्रिड युद्ध की रणनीति के चार सबसे महत्वपूर्ण पहलू सामने आते हैं:
- सूचना युद्ध: 1989 में, विलियम लिंड, वो लेखक जिसने चौथी पीढ़ी के हथियारों (यानी हाइब्रिड युद्ध) का सिद्धांत विकसित करने में मदद की, ने लिखा था कि ‘टेलीविज़न समाचार हथियारबंद टुकड़ियों की तुलना में अधिक शक्तिशाली और असरदार हथियार बन सकता है’।[24] सूचनाओं को नियंत्रित कर तथा लोगों व घटनाओं को परिभाषित कर संघर्षों को विवाद में बदला जा सकता है। कहानी पर नियंत्रण आवश्यक है, लेकिन इस नियंत्रण को केवल प्रोपगैंडा के रूप में नहीं देखा जा सकता। कहानी इतनी सफ़ाई से पेश की जाती है कि ‘दुष्ट देशों’ से आने वाली हर ख़बर झूठी लगती है, और अमेरिका व उसके सहयोगी जो कुछ भी कहते हैं वो सच। और जब झूठे बयान दिए जाते हैं –जैसे कि इराक़ के पास सामूहिक विनाश के हथियार थे– तो इन्हें ग़लती माना जाता है, झूठ नहीं। दिमाग़ों में पैठ जमाए बैठे नस्लवाद का इस्तेमाल कर कुछ नेताओं को तानाशाह –यहाँ तक कि नरसंहार करने वाले– बना दिया जाता है, जबकि दुनिया के शहरों को तबाह करने के लिए बमवर्षक जहाज़ भेजने वाले पश्चिमी नेता मानवतावादी बताए जाते हैं। राजनीतिक नेताओं को परिभाषित करना सूचना युद्ध की विशेषता है। इराक़ में दस लाख से भी ज़्यादा लोगों की हत्या के लिए भले ही संयुक्त राज्य अमेरिका ज़िम्मेदार हो, लेकिन जॉर्ज डब्ल्यू बुश के बजाय सद्दाम हुसैन को ही युद्ध अपराधी के रूप में देखा जाएगा और इसलिए हुसैन के ख़ौफ़नाक अंत को सही माना जाएगा। मुसलमान हमेशा आतंकवादी होते हैं, रूसी गैंगस्टर और जासूस होते हैं, और जो देश चुनौती देने लगे वो देश सरकार द्वारा नहीं चलती बल्कि ‘शासन‘ के हाथ में है। देशों या जन–आंदोलनों के विरोध को मानवाधिकार–उल्लंघन के बेबुनियाद दावे पेश कर ख़ारिज कर दिया जाता है। शीत युद्ध के दौरान अमेरिकी अभिनेताओं द्वारा स्थापित ह्यूमन राइट्स वॉच संगठन अमेरिकी सरकार की विदेश नीति से जुड़ा हुआ है।
राजनयिक युद्ध: किसी बहुपक्षीय निकाय से किसी देश के वैध प्रतिनिधि को हटाना उस देश की सरकार की वैधता ख़त्म करने का बढ़िया तरीक़ा है। 1962 में अमेरिका ने ऑर्गनायज़ेशन ऑफ़ अमेरिकन स्टेट्स (ओएएस) से क्यूबा को बाहर कर दिया था। अमेरिका को चुनौती देने वाले देश को इस प्रकार भी दंडित किया जा सकता है। हालाँकि क्यूबा ने अमेरिका पर आक्रमण नहीं किया था; वो अमेरिका था जिसने 1961 में क्यूबा के बे ऑफ़ पिग्ज़ पर हमला किया था और इसलिए –ओएएस चार्टर के अनुसार– अमेरिका को ओएएस से बाहर किया जाना चाहिए था। पर चूँकि ओएएस अमेरिका की शक्ति का एक उपकरण है, इसलिए क्यूबा को हटाया गया था। राजदूत को मानने से इनकार करना, अपने सहयोगियों पर ऐसा करने के लिए दबाव बनाना, संयुक्त राष्ट्र संघ में से देश को अलग करना — यह सब राजनयिक युद्ध के प्रभावी तंत्र का हिस्सा है।
- आर्थिक युद्ध: चुनौती देने वाले देश पर अमेरिकी प्रतिबंध और दूसरे स्तर के प्रतिबंध लगा दिए जाते हैं। उस देश को इन प्रतिबंधों के जाल से बाहर निकलने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। जिन देशों पर ये प्रतिबंध लगते हैं वे स्विफ़्ट प्रणाली और अंतर्राष्ट्रीय बैंकिंग नेटवर्क सहित वित्त के अन्य सामान्य चैनलों का उपयोग नहीं कर सकते; प्रमुख वस्तुओं को आयात नहीं कर सकते, और यदि कोई अन्य देश ख़ुशी से उन्हें कोई वस्तु देना चाहे तो उन्हें उसके पारगमन के लिए परिवहन फ़र्मों को भुगतान करना पड़ता है; प्रतिबंधित देश दूसरे देशों में अपने बैंक खातों का इस्तेमाल नहीं कर सकते; और विश्व बैंक द्वारा प्रस्तावित प्रमुख विकास निधियों और आईएमएफ़ द्वारा प्रस्तावित आपातकालीन निधियाँ नहीं ले सकते। जनवरी 2019 में, वेनेज़ुएला में तख़्तापलट की कोशिश की गई थी। उस समय एकतरफ़ा बल प्रयोग के नकारात्मक प्रभावों पर संयुक्त राष्ट्र संघ के विशेष रिपोर्टर, राजदूत इदरीस जज़ैरी ने कहा था, ‘मैं विशेष रूप से यह सुनकर चिंतित हूँ कि ये प्रतिबंध वेनेज़ुएला में सरकार बदलने के उद्देश्य से लगाए गए हैं। किसी संप्रभु देश में सरकार बदलने के लिए कभी भी –सेना या आर्थिक– बल का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। एक निर्वाचित सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए बाहरी शक्तियों द्वारा प्रतिबंधों का उपयोग करना अंतर्राष्ट्रीय क़ानून के सभी मानदंडों का उल्लंघन करना है’।[25]
- राजनीतिक युद्ध: लक्षित देश में सरकार की राजनीतिक वैधता को कम करने के लिए और पूरे राजनीतिक तंत्र के बारे में जनता में संदेह पैदा करने के लिए सूचना और राजनयिक युद्ध के विभिन्न उपकरणों का इस्तेमाल किया जाता है। चुनावी प्रक्रिया में धोखाधड़ी के आरोप लगाए जाते हैं, राजनीतिक नेताओं को बदनाम किया जाता है, क़ानून प्रणाली को लोकप्रिय राजनीतिक नेताओं के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया जाता है, राजनीतिक प्रणाली पर जनता का विश्वास ख़त्म करने की कोशिशें की जाती हैं। देश के पुराने अभिजात वर्ग के उपकरणों की तरह काम करने वाले ग़ैर–सरकारी संगठनों जैसे ‘विरोधी समूहों‘ को फ़ंड मिलते हैं। आर्थिक युद्ध द्वारा देश में उत्पन्न हुई कठिन आर्थिक स्थिति से आंतरिक तनाव पैदा होते हैं; जिनके लिए ये ‘विरोधी‘ आर्थिक युद्ध के बजाय सरकार को ज़िम्मेदार ठहराते हैं। और फिर असंतुष्ट और निराश जनता को फ़ंड और राजनीतिक समर्थन दिया जाता है; राजनीतिक युद्ध के बोझ से दबी जनता सत्ता परिवर्तन की बात करने लगती है। सोशल मीडिया को सरकार के ख़िलाफ़ एक हथियार बना दिया जाता है, जैसा अमेरिकी सरकार के 2010 के दस्तावेज़ स्पेशल फ़ोर्सेज़ अनकन्वेन्शनल वॉरफ़ेयर में लिखा था। यह ‘रंग क्रांति’ है; ज़मीनी स्तर के बजाय एस्ट्रोटर्फ़ (कृत्रिम ज़मीन) पर लड़ी जाती है। यदि विरोध प्रदर्शनों के ख़िलाफ़ पुलिस कार्रवाई होती है, भले ही पुलिस का मक़सद मज़दूर कॉलोनियों में आतंक फैलाने और लोगों पर शारीरिक हमला करने वालों को रोकना हो, तो इसे तानाशाही और जनसंहार के रूप में पेश किया जाता है। इसके बाद, ‘मानवीय हस्तक्षेप‘ के नाम पर संयुक्त राज्य अमेरिका का खुला सैन्य हस्तक्षेप शुरू हो जाता है। यूएस ज्वाइंट चीफ़्स ऑफ़ स्टाफ़ ज्वाइंट विज़न 2020 का कहना है कि मुख्य उद्देश्य है (’मनोवैज्ञानिक परिचालन’ और ‘कंप्यूटर नेटवर्क हमलों’ सहित) ‘सूचना परिचालन’ द्वारा लक्षित समाज में अराजकता को बढ़ावा देना।
हाइब्रिड युद्ध में, हमलावर ग़ैर–सैन्य युद्ध के इन चार (सूचना, राजनयिक, आर्थिक और राजनीतिक) उपकरणों का इस्तेमाल कर लक्षित समाज की कमज़ोरियों पर हमला करता है और अव्यवस्था फैलाकर व आक्रमण का ख़तरा दिखाकर समाज में अराजकता को बढ़ावा देता है। लक्षित समाज में दबाव बढ़ता जाता है। कुल सामाजिक और राजनीतिक पतन को रोकने के लिए एकजुटता और प्रतिरोध के सभी संसाधनों का साथ आना ज़रूरी है।
अमेरिका द्वारा चीन के ख़िलाफ़ जारी निरंतर हाइब्रिड युद्ध तकनीकों में चीनी सरकार और लोगों के ख़िलाफ़ शत्रुतापूर्ण बयानबाज़ी, हांगकांग, ताइवान और शिनजियांग में होने वाली घटनाओं के बारे में दुष्प्रचार और कोरोनावायरस महामारी को ‘चीनी वायरस‘ के रूप में पेश करना शामिल है। उनके लिए साक्ष्य कोई मायने नहीं रखते, चीन को बदनाम करने के लिए नस्लवादी और कम्युनिस्ट–विरोधी विचार ही काफ़ी हैं। हालाँकि ये तकनीक चीन के अंदर सफल नहीं हो सकीं हैं। चीन का मध्यम वर्ग –जो ‘रंग क्रांति’ का कारण बन सकता है– सरकार बदलने के मूड में नहीं है। वो सरकार द्वारा उठाए जा रहे क़दमों से संतुष्ट है और देख भी रहा है कि सरकार ने लोगों का जीवन स्तर सुधारा है और पश्चिमी देशों की सरकारों के मुक़ाबले कोरोनावायरस महामारी का बेहतर प्रबंधन किया है। हार्वर्ड विश्वविद्यालय के एक अध्ययन से पता चलता है कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की अगुवाई वाली सरकार पर साल 2003 से साल 2016 के बीच जनता का विश्वास बढ़ा है। इसका मुख्य कारण सरकार द्वारा चलाए गए समाज कल्याण कार्यक्रम हैं और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी व चीन की सरकार दोनों का भ्रष्टाचार रोकने का संघर्ष शामिल है। 95.5% जनता मौजूदा सरकार को पसंद करती है।[26]
धरती पर यूरोपीय वर्चस्व का जो युग 1492 में शुरू हुआ था वो ज़रूर समाप्त होगा। वास्तव में, हम इसका अंत होते हुए देख रहे हैं। लेकिन इससे महत्वपूर्ण सवाल उठता है। हम नहीं जानते कि इस प्रक्रिया में कितना समय लगेगा, इसे रोकने के लिए अमेरिका व उसके सहयोगियों द्वारा की जा रही कोशिशें कितनी प्रभावी और विनाशकारी होंगी, इस युग के बाद कैसा युग आएगा। हमारा काम है 1804 की हैती क्रांति से शुरू हुए प्रतिरोध को तब तक जारी रखना, जब तक कि 1492 की तारीख़ की तरह एक नयी तारीख़ नहीं आती, जब यूरोप और उसकी औपनिवेशिक कॉलोनियों के वर्चस्व का युग समाप्त हो जाएगा।
Notes
[1] Peter Linebaugh and Marcus Rediker, The Many-Headed Hydra: The Hidden History of the Revolutionary Atlantic, (Boston: Beacon Press, 2000).
[2] Dan Sperling, ‘In 1825, Haiti Paid France $21 Billion To Preserve Its Independence — Time For France To Pay It Back’, Forbes, 6 December 2017, https://www.forbes.com/sites/realspin/2017/12/06/in-1825-haiti-gained-independence-from-france-for-21-billion-its-time-for-france-to-pay-it-back (accessed 7 December 2020).
[3] Thucydides, History of the Peloponnesian War, trans. Rex Warner, (Baltimore: Penguin Books, 1968).
[4] Quoted in Melvyn Leffler, A Preponderance of Power: National Security, the Truman Administration, and the Cold War (Palo Alto, CA: Stanford University Press, 1992), 18–19.
[5] To read more about the crackdown of the Communist Party of Indonesia following the 1965 coup, see ‘The Legacy of Lekra: Organising Revolutionary Culture in Indonesia’, Tricontinental: Institute for Social Research, 1 December 2020, https://www.thetricontinental.org/dossier-35-lekra/
[6] ‘Excerpts From Pentagon’s Plan: “Prevent the Re-Emergence of a New Rival”’, New York Times, 8 March 1992, https://www.nytimes.com/1992/03/08/world/excerpts-from-pentagon-s-plan-prevent-the-re-emergence-of-a-new-rival.html (accessed 7 December 2020).
[7] Vijay Prashad, Washington bullets, (Delhi: LeftWord Books, 2020), 118. https://mayday.leftword.com/catalog/product/view/id/21820
[8] ‘U.S. National Security Strategy: Transform America’s National Security Institutions To Meet the Challenges and Opportunities of the 21st Century’, U.S. Department of State Archive, 20 September 2001, https://2001-2009.state.gov/r/pa/ei/wh/15430.htm (accessed 7 December 2020).
[9] Nan Tian, Alexandra Kuimova, Diego Lopes da Silva, Pieter D. Wezeman and Siemon T. Wezeman, ‘Trends in World Military Expenditure, 2019’, Stockholm International Peace Research Institute, April 2020, https://www.sipri.org/sites/default/files/2020-04/fs_2020_04_milex_0_0.pdf (accessed 7 December 2020).
[10] John Schmitt, Elise Gould, and Josh Bivens, ‘America’s slow-motion wage crisis’, Economic Policy Institute, 13 September 2018, https://www.epi.org/publication/americas-slow-motion-wage-crisis-four-decades-of-slow-and-unequal-growth-2/ (accessed 7 December 2020.)
[11] Donald J. Trump, ‘Inaugural Address: Remarks of President Donald J. Trump – as prepared for delivery’, The White House, 20 January 2017, https://www.whitehouse.gov/briefings-statements/the-inaugural-address/ (accessed 7 December 2020).
[12] ‘The Power of America’s Example: The Biden Plan for Leading the Democratic World to Meet the Challenges of the 21st Century’, Joebiden.com, July 2019, https://joebiden.com/americanleadership (accessed 7 December 2020).
[13] ‘National Defense Authorization Act (NDAA) 2020 Section 1253 Assessment Executive Summary: Regain the Advantage’, U.S. Indo- Pacific Command, 5 April 2020, https://int.nyt.com/data/documenthelper/6864-national-defense-strategy-summ/8851517f5e10106bc3b1/optimized/full.pdf (accessed 7 December 2020).
[14] ‘Factbox: How close is China to complete building a moderately prosperous society in all respects’, Xinhua, 2 August 2020, http://www.xinhuanet.com/english/2020-08/02/c_139259082.htm (accessed 7 December 2020).
[15] For more on the lawfare coup in Brazil, read ‘Lula and The Battle for Democracy’, Tricontinental: Institute for Social Research, 1 June 2018, https://www.thetricontinental.org/lula-and-the-battle-for-democracy/
[16] ‘Russia and China hold the biggest military exercises for decades’, The Economist, 6 September 2018, https://www.economist.com/europe/2018/09/06/russia-and-china-hold-the-biggest-military-exercises-for-decades (accessed 8 December 2020).
[17] Vladimir Isachenko, ‘Putin: Russia-China military alliance can’t be ruled out’, AP News, 22 October 2020, https://apnews.com/article/beijing-moscow-foreign-policy-russia-vladimir-putin-1d4b112d2fe8cb66192c5225f4d614c4 (accessed 7 December 2020).
[18] Milo Medin and Gilman Louie, ‘The 5G Ecosystem: Risks & Opportunities for DoD Defense Innovation Board’, Contributors: Kurt DelBene, Michael McQuade, Richard Murray, Mark Sirangelo, Defense Innovation Board, 3 April 2019, https://media.defense.gov/2019/Apr/04/2002109654/-1/-1/0/DIB_5G_STUDY_04.04.19.PDF (accessed 7 December 2020).
[19] ‘Multipolarity Plays Key Role in World Peace: Chinese Vice President’, People’s Daily, 6 November 2001, http://en.people.cn/english/200111/05/eng20011105_83945.html (accessed 7 December 2020).
[20] National Intelligence Council, Global Trends 2030: Alternative Worlds, (Washington, DC: Office of the Director of National Intelligence, 2012), iii.
[21] Richard Haass, ‘How to Build a Second American Century’, Washington Post, 26 April 2013; and Stephen Brooks and William C. Wohlforth, World Out of Balance: International Relations and the Challenge of American Primacy, (Princeton: Princeton University Press, 2008).
[22] Richard Haass, Foreign Policy Begins at Home. (New York: Basic Books, 2013).
[23] Andrew Korybko, Hybrid Wars: The Indirect Adaptive Approach to Regime Change, (Moscow: Peoples’ Friendship University of Russia, 2015), https://orientalreview.org/wp-content/uploads/2015/08/AK-Hybrid-Wars-updated.pdf
[24] William S. Lind and Gregory A. Thiele, 4th Generation Warfare Handbook (Kouvola: Castalia House, 2015).
[25] ‘Venezuela sanctions harm human rights of innocent people, UN expert warns’, United Nations Human Rights, Office of the High Commissioner, 31 January 2019,
https://www.ohchr.org/en/NewsEvents/Pages/DisplayNews.aspx?NewsID=24131&LangID=E (accessed 7 December 2020).
[26] Dan Harsha, ‘Taking China’s pulse’, The Harvard Gazette, 9 July 2020,https://news.harvard.edu/gazette/story/2020/07/long-term-survey-reveals-chinese-government-satisfaction/ (accessed 7 December 2020).