अमेरिका ने अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय को अंगूठा दिखाया: अड़तालीसवां न्यूज़लेटर (2024)
आईसीसी ने इज़राइल के प्रधानमंत्री और पूर्व रक्षा मंत्री की गिरफ्तारी का वारंट जारी किया। इसके बावजूद यूएस ने ‘हमेशा इज़राइल का साथ देने’ की बात कही है।
प्यारे दोस्तो,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
इतिहास ख़त्म हो उससे पहले आख़िरकार अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (आईसीसी) ने युद्ध अपराधों और मानवता के विरुद्ध अपराधों के लिए इज़राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू और उनके पूर्व रक्षा मंत्री योआव गलांत की गिरफ़्तारी का वॉरंट जारी कर दिया है। अभियोग में कहा गया कि इस बात के ‘वाजिब सबूत हैं कि दोनों व्यक्तियों ने जानबूझकर गज़ा के नागरिकों को जीवित रहने के लिए ज़रूरी चीज़ों से वंचित किया, जैसे खाना, पानी, दवाएँ, चिकित्सा सामग्री और साथ ही ईंधन और बिजली’। अदालत के मुताबिक यह विश्वास करने के लिए पर्याप्त कारण हैं कि दोनों व्यक्तियों ने युद्ध के एक तरीक़े के रूप में भुखमरी फैलाने जैसा युद्ध अपराध किया। हत्या, उत्पीड़न और अन्य अमानवीय कृत्य किए, नागरिक आबादी पर हमले के निर्देश दिए। इस तरह वे युद्ध अपराधों के लिए ज़िम्मेदार हैं। वॉरंट जारी होने के लगभग तुरंत बाद ही संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) के राष्ट्रपति जो बाइडन ने कोर्ट के इस कदम की निंदा की और कहा कि ‘आईसीसी द्वारा इज़राइली नेताओं की गिरफ़्तारी के वॉरेंट जारी किया जाना बहुत शर्मनाक है’। बाइडन ने कहा कि यूएस ‘हमेशा इज़राइल के साथ खड़ा रहेगा’।
बाइडन के व्हाइट हाउस से कुछ ही दूरी पर फ्रीडम हाउस नाम की संस्था है, जो 1941 में बनी थी और इसे मुख्यत: अमेरिकी विदेश मंत्रालय ही पैसा देता है। हर साल फ्रीडम हाउस दुनिया में आज़ादी पर एक सूचकांक (इंडेक्स) जारी करता है। इसमें बहुत तरह के आँकड़ों के आधार पर यह तय किया जाता है कि कोई देश ‘स्वतंत्र’ है, ‘आंशिक स्वतंत्र’ है या ‘अस्वतंत्र’। अमेरिका के विरोधी देश जैसे चीन, क्यूबा, ईरान, उत्तर कोरिया और रूस, लगातार ‘अस्वतंत्र’ पाए जाते हैं, भले ही वहाँ अपनी चुनाव प्रक्रियाएँ चलें और तमाम तरह की विधायिकाएँ हैं (उदाहरण के लिए, ईरान के 2024 के चुनावों में कंसल्टेटिव असेंबली की 290 सीटों के लिए 15,200 उम्मीदवार खड़े हुए; पिछले साल क्यूबा में नैशनल असेंबली ऑफ़ पीपल्स पॉवर की 470 सीटों पर चुनाव हुए जिनमें मतदान प्रतिशत 75.87% रहा)। इस बीच इज़राइल के 2024 के इंडेक्स में ‘ग्लोबल फ्रीडम स्कोर’ 74/100 था और दावा किया गया कि इस क्षेत्र में यह इकलौता ‘स्वतंत्र’ देश है। जबकि इंडेक्स तैयार करने वालों ने यह दर्ज किया कि इज़राइल में ‘राजनीतिक नेतृत्व और समाज के अन्य कई लोग अरब और दूसरे जातीय तथा धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों के लोगों के साथ भेदभाव करते हैं, जिसका नतीजा यह है कि इंफ्रास्ट्रक्चर, आपराधिक न्याय प्रणाली, शिक्षा और आर्थिक विकास के अवसरों में संस्थागत असमानता पैदा हुई है’। यूएस विदेश मंत्रालय की आर्थिक मदद से चलने वाले इस इंडेक्स का इस्तेमाल समय-समय पर ऐसे देशों को नीचा दिखाने के लिए किया गया है, जिन्हें अमेरिकी विदेश मंत्रालय ‘अस्वतंत्र’ मानता है। इस इंडेक्स के मानदंडों के मुताबिक एक नस्लभेद पर आधारित व्यवस्था जो दूसरों की ज़मीन कब्ज़ाने पर टिकी है और अब जनसंहार कर रही है, एक शानदार लोकतंत्र है।
फ्रीडम इंडेक्स जितना सीधा-स्पष्ट दिखता है उतना होता नहीं। पश्चिमी संस्थानों से चुने गए विश्लेषकों और परामर्शदाताओं के व्यक्तिगत आकलनों पर आधारित ये इंडेक्स इस तरह तैयार किए जाते हैं कि इनसे वही निष्कर्ष निकलें जो वे चाहते हैं। यूँ तो फ्रीडम हाउस दावा करता है कि वह नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिज्ञापत्र (1966) से प्रेरित है लेकिन यह आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिज्ञापत्र (1966) को अनदेखा करता है। यह दूसरा दस्तावेज़ लोकतंत्र के बारे में एक विस्तृत समझ तैयार करने के लिए ज़रूरी है। ऐसी समझ जो सिर्फ चुनाव करवाने और विभिन्न राजनीतिक दलों की मौजूदगी पर नहीं टिकी। दूसरे दस्तावेज़ के सिर्फ अनुच्छेद 11 के आधार पर ही लोकतंत्र की संकल्पना में आवास का अधिकार और भूख से आज़ादी का अधिकार शामिल किया जा सकता है। और अनुच्छेद 4 में दर्ज है कि आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर प्रतिज्ञापत्र का उद्देश्य ‘एक लोकतांत्रिक समाज में सामान्य कल्याण’ को बढ़ावा देना है। यहाँ लोकतंत्र शब्द का इस्तेमाल सिर्फ़ चुनाव केंद्रित नहीं, बल्कि उससे बहुत विस्तृत है। अगर बात केवल चुनावों की ही है, तो भी फ्रीडम हाउस इंडेक्स में तमाम उदारवादी लोकतांत्रिक देशों में वोट न डालने वालों की बहुत बड़ी संख्या और राजनीतिक दलों तथा नेताओं की जवाबदेही तय करने वाली जीवंत मीडिया संस्कृति के ध्वंस को लेकर कोई ख़ास चिंता नहीं दिखती।
लेकिन इन इंडेक्स बनाने वालों को इन सब से क्या ही फ़र्क पड़ता है? वे तो ख़ुद को पूरी दुनिया का मालिक समझते हैं। आईसीसी अभियोग पर यूएस और जर्मनी जैसे देशों से इसी तरह की प्रतिक्रिया की उम्मीद थी, लेकिन फिर भी यह काफ़ी चौंकाने वाली रहीं। इन दोनों देशों ने इस जनसंहार के दौरान सबसे ज़्यादा हथियार इज़राइल को दिए हैं। बाइडन की अभिमान से भरी प्रतिक्रिया से कुछ बातें साफ़ हो गई हैं कि यूएस को या तो यह समझ नहीं आ रहा कि उसके इस संवेदनहीन रवैये के क्या मायने हैं या फिर उसे इसका अहसास नहीं है कि आईसीसी के वॉरंटों को अस्वीकार कर देने से उसके ‘नियम-आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था’ पर अंतिम प्रहार हो चुका है। यूएस के संवेदनहीन रवैये की अगर बात करें तो: 2024 के राष्ट्रपति चुनावों से पहले बाइडन प्रशासन ने कहा कि इज़राइल को तीस दिन के अंदर-अंदर गज़ा में राहत सामग्री को जाने देना होगा वरना उसे हथियार नहीं दिए जाएंगे, लेकिन यह तीस दिन की मोहलत आई और चली गई किसी को फ़र्क नहीं पड़ा। यह ‘नियम-आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था’ हमेशा से ही एक छलावा थी। 2002 में आतंक के ख़िलाफ़ अमेरिका के युद्ध के दौरान यूएस काँग्रेस में इस बात पर बहस हुई कि एक अमेरिकी सैनिक या सीआईए अधिकारी पर युद्ध अपराध का आरोप लगने की कितनी संभावना है। उस सैनिक या अधिकारी को बचाने के लिए यूएस काँग्रेस ने अमेरिकन सर्विसमेम्बर्स प्रोटेक्शन ऐक्ट पास किया जिसे ‘हेग इन्वेज़न ऐक्ट’ [अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय और आईसीसी दोनों नीदरलैंड के हेग शहर में हैं, चूँकि यूएस का यह कानून अंतर्राष्ट्रीय कानून से बचने के मक़सद से बनाया गया इसलिए इसे हेग में घुसपैठ की तरह देखा गया] के नाम से भी जाना गया। हालांकि कानून में यह नहीं कहा गया कि यूएस नीदरलैंड में घुसपैठ कर अपने सैनिकों या अधिकारियों को आईसीसी से बचा सकता है लेकिन इसमें कहा गया कि यूएस राष्ट्रपति ‘को अधिकार है कि वह सब संभव और उचित उपायों का प्रयोग कर किसी भी व्यक्ति को रिहा करवा सकता है… जिसे अंतर्राष्ट्रीय अपराध न्यायालय के लिए या उसके कहने पर हिरासत या कैद में रखा गया है’। यह कानून जब पारित हुआ उसी के आसपास यूएस, आईसीसी जिस रोम संविधि (1998) द्वारा बना था, से औपचारिक रूप से अलग हो गया।
अमेरिकी सीनेटर टॉम कॉटन और लिंडसे ग्राहम, दोनों ने हेग इन्वेज़न ऐक्ट का हवाला देते हुए नेतन्याहू और गलांत के खिलाफ आईसीसी के वॉरंटों पर प्रतिक्रिया देते हुए यहाँ तक कह दिया है कि यूएस सीनेट को कनाडा जैसे मित्र देशों पर भी प्रतिबंध लगा देने चाहिए जिन्होंने इन वॉरंटों को स्वीकार करने में जल्दबाज़ी दिखाई। अगर यूएस आईसीसी द्वारा जारी वॉरंटों को सिरे से नकार देता है तो इसका मतलब होगा कि वह दुनिया को स्पष्ट रूप से बता रहा है कि नियमों में उसका कोई विश्वास नहीं और नियम सिर्फ़ दूसरों को अनुशासन में रखने के लिए हैं, वे ख़ुद उस पर लागू नहीं होते। बड़ी दिलचस्प बात है कि यूएस ने कितनी ही अंतर्राष्ट्रीय संधियों पर या तो हस्ताक्षर ही नहीं किए या तो उन्हें कभी मंज़ूरी नहीं दी। इनमें से कुछ उदाहरण देखकर ही समझ आ जाता है कि अमेरिका एक ठोस नियम-आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था की किस कदर अवहेलना करता रहा है:
- मानव तस्करी को रोकने और दूसरों को देह व्यापार में झोंकने के ख़िलाफ़ संधि (1949, कभी हस्ताक्षर नहीं किए)।
- शरणार्थियों की स्थिति से जुड़ी संधि (1949, कभी हस्ताक्षर नहीं किए)।
- शिक्षा में भेदभाव के ख़िलाफ़ संधि (1960, कभी हस्ताक्षर नहीं किए)।
- विवाह के लिए मंज़ूरी, विवाह की न्यूनतम आयु और विवाह पंजीकरण के लिए संधि (1962, हस्ताक्षर किए लेकिन मंज़ूरी नहीं दी)।
- युद्ध अपराधों और मानवता के विरुद्ध अपराधों पर वैधानिक सीमा न लागू किए जाने के लिए संधि (1968, कभी हस्ताक्षर नहीं किए)।
- समुद्र के कानून पर संयुक्त राष्ट्र की संधि (1982, कभी हस्ताक्षर नहीं किए)।
- ज़हरीले कूड़े और उसके निपटान के लिए उसे दूसरे देशों में भेजे जाने पर नियंत्रण के लिए बेसल संधि (1989, हस्ताक्षर किए पर मंज़ूरी नहीं दी)।
- विकलांग जनों के अधिकारों पर संधि (2006, हस्ताक्षर किए पर मंज़ूरी नहीं दी)।
इससे भी ज़्यादा खतरनाक यह है कि वे संधियाँ जो हथियारों पर रोक के लिए बनीं, उनमें से भी कइयों पर यूएस ने या तो हस्ताक्षर ही नहीं किए या एकतरफ़ा फैसला करते हुए उनसे पीछे हट गया:
- एंटी-बलिस्टिक मिसाइल (एबीएम) संधि (1972, 2002 में पीछे हट गया)।
- मध्यवर्ती-दूरी परमाणु हथियार (आईएनएफ़) संधि (1987, 2019 में पीछे हट गया)।
- खनन प्रतिबंध संधि (1997, कभी हस्ताक्षर नहीं किए)।
- जंगी समान के समूह पर संधि (2008, कभी हस्ताक्षर नहीं किए)।
- हथियार व्यापार संधि (2013, हस्ताक्षर किए पर 2019 में पीछे हट गया)।
यूएस चूंकि एबीएम संधि और आईएनएफ़ संधि से एकतरफ़ा रूप से पीछे हट गया था, इसीलिए यूक्रेन में तनाव इतना बढ़ गया। रूस ने स्पष्ट कर दिया था कि मध्य-रेंज वाली परमाणु मिसाइलों पर रोक लगाने वाली किसी भी तरह की संधि का न होना उसके बड़े शहरों के लिए ख़तरा है, यदि इसके पड़ोसी देश उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) में शामिल हो जाते हैं। 18 नवंबर को एक भड़काऊ और ख़तरनाक क़दम उठाते हुए बाइडन ने यूक्रेन को रूसी सीमाओं में मध्यवर्ती रेंज की मिसाइलें दागने की अनुमति दे दी, जिसके बाद रूस ने भी यूक्रेन के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई की। अगर रूस ने जवाबी कार्रवाई करते हुए उनमें से एक मिसाइल जर्मनी में यूएस के सैन्य अड्डे पर चला दी होती तो हम सब संभवत: एक न्यूक्लियर विंटर [परमाणु हथियारों के भयानक परिणाम] झेल रहे होते। हथियारों पर रोक लगाने की एक व्यवस्था के प्रति यूएस का यह बेपरवाह रवैया अंतर्राष्ट्रीय कानून के लिए उसकी उपेक्षा का ही एक हिस्सा है और अब आईसीसी की बेइज़्ज़ती करके उसने इसे और पुख़्ता कर लिया है।
1982 में दक्षिण अफ्रीकी स्वतंत्रता सेनानी और कवि मोंगने वॉली सेरोते (जन्म 1944) ने अपनी शानदार किताब द नाइट कीपस् विंकिंग में ‘टाइम हैज़ रन आउट’ [समय खत्म हो चला] शीर्षक कविता संकलित की। वह बोत्सवाना में रहते थे और मेदु कला समूह से जुड़े थे। (जिसके बारे में हमने पिछले साल एक डोसियर लिखा था) उन्होंने लिखा ‘हममें से कई लोग पागल हो चुके हैं’ क्योंकि ‘हम इंसान हैं और ये हमारी ज़मीन है’। सेरोते दक्षिण अफ्रीका के बारे में लिख रहे थे लेकिन हम उनके विचार का विस्तार अब फिलिस्तीन तक कर रहे हैं और शायद पूरी दुनिया तक ही। सेरोते ने लिखा:
बहुत खून बह चुका
मेरे देशवासियो, क्या कोई अक्ल की एक बात कर सकता है…
आह, हम इस भयावहता के आदी हो चले हैं
जब हमारे देश का दिल
धड़कता है
आगे बढ़ता समय
हम पर वार करता है
मेरे देशवासियो, क्या कोई समझ पा रहा है कि बहुत देर हो चुकी है
कोई है जो जानता हो कि शोषण और ज़ुल्म दिमाग हैं जो
पागल हैं और सिर्फ हिंसा जानते हैं
क्या कोई हमें अपने ज़ख्मों पर खड़े होकर लड़ना सिखा सकता है।
जैसा कि 1959 में फ़्रांत्ज़ फ़ेनों ने लिखा था कि वक़्त आ गया है अपने ‘गहरे ज़ख्मों’ को हरा करने का, इन्हीं ज़ख्मों पर सवार होकर लड़ने का।
इस साल की शुरुआत में सेरोते ने फिलिस्तीन के लिए एक कविता लिखी, जिसका एक अंश मैंने फिलिस्तीन के साथ एकजुटता के अंतर्राष्ट्रीय दिवस (29 नवंबर) पर पेश किया: इस दिन हमने ट्राईकॉन्टिनेन्टल की तरफ़ से फिलिस्तीनी कलाकार इब्राहीम मोहोना के चित्रों की प्रदर्शनी लगाई, और वो गज़ा में इज़राइल के जनसंहार के बीच जिन बीस बच्चों को चित्रकारी सिखा रहे हैं, उनके चित्रों की भी।
हम अपनी आँखों से सुनते हैं सायरन की आवाज़ और बम के धमाके
जब विस्फोट हमारी आँखों और कानों के सामने होता है
आग का लाल गोला
तूफ़ान की तरह भभक उठता है
और इंसान के माँस को लिए तांडव करता है
इससे पहले गहरा काला धुआँ
गरजता हुआ बढ़ता है
बढ़ता ही जाता है
ओह
मानव जातिऔर फिर सब ख़त्म…
आह फिलिस्तीन!
तुम बने रहो।
सस्नेह,
विजय।