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सीरिया में सत्ता परिवर्तन को कैसे समझा जाए: इक्यावनवाँ न्यूज़लेटर (2024)

दमिश्क के पतन और एचटीएस के सत्ता में आने के साथ इसराइल से लेकर अफ़्रीका के सहेल क्षेत्र में क्या असर होगा?

नामलू, हुमाम अल सईद (सीरिया), 2012

प्यारे दोस्तो,

ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।

दमिश्क का पतन पिछले कुछ महीनों की सबसे हैरान कर देने वाली घटनाओं में से एक है। एक दशक पहले जब क़तर, तुर्की, सऊदी अरब और संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) की आर्थिक मदद से बाग़ियों की सेनाएँ सीरिया की सरहदों पर इकट्ठा होने लगी थीं और राष्ट्रपति बशर अल-असद की सरकार के लिए ख़तरा खड़ा कर रही थीं, तभी लगा था दमिश्क ढह जाएगा। अमीर और ताक़तवर देशों की मदद से चल रही इन सेनाओं के कई घटक थे, जिनमें शामिल हैं:

  1. वे तमाम तरह के लोग जो अर्थव्यवस्था को खोलने के बाद खड़े हुए आर्थिक संकट और छोटे निर्माताओं व कारोबारियों की जो बर्बादी हुई, उससे ग़ुस्से में थे, छोटे कारोबारियों की यह बर्बादी उत्पादन के क्षेत्र में तुर्की के आगे बढ़ने से हो रही थी;
  2. उत्तर के कृषक जो लंबे पड़े सूखे से निपटने में सरकार की नाकामी के चलते अलेप्पो और इदलिब जैसे उत्तरी शहरों में जाने के लिए मजबूर हो गए थे;
  3. धर्मनिरपेक्ष निम्न बुर्जुआ या पेटि बुर्जुआ वर्ग के कुछ हलक़े जो 2000-01 के दमिश्क स्प्रिंग की असफलता से नाराज़ थे जिसका शुरुआती वादा था कि देश भर में muntadayāt (बहस-ओ-मुबाहसा) के ज़रिए राजनीतिक सुधार लाए जाएंगे;
  4. बेहद हताश सीरियन मुस्लिम ब्रदरहुड, जिसका गठन धार्मिक कट्टर पेटि बुर्जुआ के बीच से हुआ था जिसे 1982 में रौंद दिया गया था। लेकिन 2010-11 में ट्यूनीशिया और मिस्र के विरोध प्रदर्शनों में ब्रदरहुड की भूमिका से प्रभावित होकर फिर से उभरा;
  5. इराक़ में अल-क़ायदा से प्रशिक्षण प्राप्त आतुर इस्लामिक ताक़तें जो दमिश्क की सबसे ऊँची दीवार पर जिहादियों का काला झंडा फहराना चाहती थीं।

2011 में सीरिया में विपक्ष के इन तत्त्वों के 2011 में विफल होने के बावजूद इन्हीं में से कुछ ताक़तें 7 दिसंबर 2024 को असद सरकार को गिराने में कामयाब हुईं।

सिर्फ़ एक दशक पहले असद सरकार सत्ता में इसलिए बनी रह पाई थी क्योंकि उसके साथ ईरान और रूस का समर्थन था लेकिन साथ ही साथ इसके पास कुछ हद तक अपने पड़ोसी इराक़ और हिज़बुल्ला (लेबनान) का भी समर्थन था। असद में चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं थी। वह 2000 में अपने पिता हाफ़िज़ अल-असद, की मौत के बाद राष्ट्रपति बने। उनके पिता ने 1971 में सैन्य तख़्तापलट के बाद सत्ता हासिल की थी। बशर अल-असद एक सहूलियत भरे माहौल में पले-बढ़े और यूके में नेत्र चिकित्सक की पढ़ाई की। इस साल दिसंबर में जब बाग़ियों की सेनाएँ दमिश्क के पास पहुँची तो असद अपने परिवार के साथ मॉस्को भाग गए। उन्होंने कहा कि वह राजनीति से संन्यास लेकर अपनी डॉक्टरी फिर से शुरू करना चाहते हैं। उन्होंने अपने लोगों से बहादुर बने रहने को नहीं कहा और न ही यह कहा कि वो फिर अपनी सेनाओं के साथ यह लड़ाई लड़ने के लिए लौटेंगे। उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा जिससे लोगों को तसल्ली होती। वह जितनी ख़ामोशी से राजनीति में आए उतनी ही ख़ामोशी से अपने देश को छोड़कर चले गए। कुछ दिनों बाद टेलीग्राम पर अल-असद ने कायरता से भरा एक संदेश जारी किया।

द सिम्बॉलिक हिस्ट्री ऑफ अरब जॉय ( अरबिया फेलिक्स), हक़ीम उल अकली (यमन), 1994.

2014 में सीरिया, ईरान और रूस की सेनाओं से हारने के बाद सीरियाई बाग़ी तुर्की और सीरिया की सीमा के पास स्थित इदलिब शहर में फिर से संगठित हुए। यहीं 2016 में प्रमुख विपक्षी ताक़तें अल-क़ायदा से टूटकर अलग हुईं, उन्होंने स्थानीय काउन्सलों को अपने नियंत्रण में ले लिया और ख़ुद को असद विरोधी आंदोलन के इकलौते नेतृत्व के तौर पर तैयार किया। इसी ग्रुप यानी हयात तहरीर अल-शाम (लेवंट स्वतंत्रता संगठन या एचटीएस) ने अब दमिश्क में सत्ता हासिल की है।

इराक़ में अल-क़ायदा से सीधे तौर से निकला एचटीएस अपनी जड़ों से पूरी तरह टूट नहीं पाया है और आज भी एक अलगाववादी संगठन है जो मुमकिन है, सीरिया को आख़िरकार एक ख़लीफ़ा में बदल दे। इराक़ और सीरिया में एचटीएस के नेता अबु मोहम्मद अल-जोलानी की छवि सीरिया के अल्पसंख्यक समुदायों (ख़ासतौर से अल्वी, अर्मेनियन, कुर्द, शिया) के साथ बेहद बर्बरता करने की है, इन समुदायों को वह पतित कहता है। अल-जोलानी इस छवि से वाक़िफ़ है, लेकिन वह दुनिया के सामने अब अपने आपको बहुत ही अलग ढंग से पेश करने में कामयाब हुआ है। उसने अल-क़ायदा के दौर का अपना लिबास छोड़ दिया; दाढ़ी छोटी कर ली; आम सादे ख़ाकी कपड़े पहनने लगा और मीडिया से नपी-तुली भाषा में बात करना सीख लिया। जिस वक़्त उसकी सेना दमिश्क पर कब्ज़ा कर रही थी उसी दौरान सीएनएन को दिए एक ख़ास इंटरव्यू में अल-जोलानी ने अपने नाम पर पहले हुई ख़ूनी कार्रवाइयों को बस बचपना कहकर टाल दिया। ऐसा लगता है कि उसे किसी पब्लिक रिलेशंस  कंपनी से प्रशिक्षण मिला हो। अल-जोलानी अब अल-क़ायदा का वहशी नहीं रहा, बल्कि उसे अब एक सीरियाई राजनीतिज्ञ के रूप में पेश किया जा रहा है।

12 दिसंबर को मैंने सीरिया के अलग-अलग हिस्सों में रहने वाले अल्पसंख्यक समुदायों के अपने दो दोस्तों से बात की। दोनों ने कहा कि उन्हें जान का ख़तरा है। वे जानते हैं कि कुछ देर के लिए तो जश्न और शांति का माहौल रहेगा, लेकिन आगे चलकर निश्चित ही उन्हें ख़तरनाक हमले झेलने पड़ेंगे। बल्कि अपने जानकारों से उन्हें अल्वियों और शियाओं पर छिटपुट हमलों की ख़बरें मिलने लगी हैं। एक दूसरे दोस्त ने मुझे याद दिलाया कि 2003 में इराक़ में सद्दाम हुसैन की सरकार के गिरने के बाद शांति थी; लेकिन हफ़्तों बाद ही बग़ावत शुरू हो गई। क्या सीरिया की पुरानी सरकारी ताक़तें अचानक अपने शासन के यूँ गिर जाने के बाद भी ख़ुद को कुछ संभाल लेंगी और ऐसी बग़ावत करेंगी? सीरिया की सत्ता पर फ़िलहाल काबिज़ लोगों के चरित्र को देखते हुए अनुमान लगाना नामुमकिन है कि वहाँ का सामाजिक ताना-बाना कैसा होने वाला है। युद्ध की वजह से देश छोड़कर जाने को मजबूर हुए 70 लाख सीरियाइयों में से अगर कुछ वापस आ गए और उन्होंने उस बर्ताव का बदला लेने की ठान ली जिसकी वजह से वे देश छोड़कर गए, तो वहाँ के हालात कैसे होंगे यह अभी समझ पाना बिल्कुल ही असंभव है। इस तरह का कोई भी युद्ध शांति से ख़त्म नहीं होता। अभी बहुत हिसाब करने बाक़ी रह गए हैं।

ड्रीम 92, सफ़वान दाहौल (सीरिया), 2014

सीरियाई जनता और उसकी भलाई से ध्यान भटकाए बिना हमें समझने की ज़रूरत है कि इस सत्ता परिवर्तन के क्षेत्रीय और वैश्विक मायने क्या हैं। इन परिणामों को एक-एक करके देखते हैं, शुरुआत इज़राइल से करते हुए अफ्रीका के सहेल क्षेत्र पर ख़त्म करते हुए।

  1. इज़राइल– सीरिया में एक दशक से चल रहे गृहयुद्ध का फ़ायदा उठाते हुए इज़राइल ने सीरिया के सैन्य अड्डों पर लगातार बमबारी की है, जिससे सीरियन अरब आर्मी (एसएए) और उसके साथी (ख़ासतौर से ईरान और हिज़बुल्ला) कमज़ोर पड़े। पिछले एक साल में इज़राइल ने फ़िलिस्तीनियों का जनसंहार तेज़ किया और इसी दौरान इज़राइल ने हर उस सैन्य अड्डे पर हमला किया जो उसके हिसाब से ईरान और हिज़बुल्ला को हथियार पहुँचाने में इस्तेमाल हो रहे थे। इज़राइल ने फिर हिज़बुल्ला को कमज़ोर करने के लिए लेबनान में घुसपैठ की। दक्षिणी लेबनान में जहाँ हिज़बुल्ला की जड़ें थीं, वहाँ इज़राइल ने आक्रमण किया और लंबे समय से हिज़बुल्ला के नेता रहे सय्यद हसन नसरल्ला की हत्या करके संगठन को कमज़ोर करने में कामयाब हुआ। जैसे सब कुछ किसी तयशुदा रणनीति से हो रहा था। एचटीएस जब इदलिब से बाहर की ओर बढ़ने लगा तो इज़राइल ने हवाई हमले में उसे मदद पहुंचाई। उसने सीरिया के सैन्य ठिकानों और अड्डों पर बमबारी की, जिससे एसएए का मनोबल कम हो जाए। जब एचटीएस ने दमिश्क को क़ब्ज़े में लिया तो इज़राइल ने अपने क़ब्ज़े वाले गोलन हाइटस् (1973 में कब्ज़ा में लिया गया) में तैनात अपनी डिविज़न 210 को मज़बूत किया और फिर संयुक्त राष्ट्र संघ की बफ़र ज़ोन (1974 में स्थापित) में दाख़िल हो गया। इज़राइली टैंक बफ़र ज़ोन से भी आगे बढ़कर दमिश्क के बहुत क़रीब तक आ गए। एचटीएस ने सीरियाई ज़मीन पर इस क़ब्ज़े का बिल्कुल भी विरोध नहीं किया।
  2. तुर्की– तुर्की की सरकार ने 2011 के विद्रोह को शुरुआत से ही सैन्य और राजनीतिक मदद दी और सीरिया की मुस्लिम ब्रदरहुड की निष्कासित सरकार को इस्तांबुल में पनाह दी। 2020 में जब एसएए बाग़ियों के ख़िलाफ़ इदलिब की ओर बढ़ी तो तुर्की ने सीरिया पर आक्रमण कर दिया ताकि इदलिब शहर को कोई नुक़सान न पहुँचाने का जबरन समझौता करवाया जा सके। दमिश्क की तरफ जाने वाले एम 5 महामार्ग पर आगे बढ़े विद्रोहियों का सैन्य प्रशिक्षण भी तुर्की ने करवाया और उत्तर में कुर्द तथा दक्षिण में एसएए से लड़ने के लिए सैन्य उपकरण भी मुहैया करवाए। तुर्की के ज़रिए ही मध्य एशिया के तमाम इस्लामवादी एचटीएस की लड़ाई में शामिल हुए, जिनमें चीन के उइगर भी हैं। पिछले एक दशक में जब तुर्की ने दो बार सीरिया पर हमला किया तो उन सीरियाई इलाक़ों पर भी क़ब्ज़ा कर लिया जिन्हें यह ऐतिहासिक रूप से अपना मानता है। एचटीएस की सरकार के दौरान ये इलाक़े सीरिया को वापस नहीं मिलेंगे।

चाइल्ड ऑफ फ़िलिस्तीन, फतेह अल-मुदर्रिस (सीरिया), 1981.

  1. लेबनान और इराक़- 2003 में सद्दाम हुसैन की सरकार गिरने के बाद ईरान ने एक पुल बनाया ताकि लेबनान (हिज़बुल्ला) और सीरिया दोनों में अपने सहयोगियों को मदद पहुँचा सके। अब सीरिया में सरकार बदल चुकी है तो हिज़बुल्ला को समान पहुँचाना मुश्किल होगा। लेबनान और इराक़ दोनों की सीमाएँ अब एक ऐसे देश से लगी हैं, जहाँ पहले अल-क़ायदा से जुड़े संगठन का शासन है। हालांकि फ़िलहाल यह स्पष्ट नहीं कि इसका इस क्षेत्र पर क्या असर होगा लेकिन हो सकता है कि इससे अल-क़ायदा फिर से सर उठाना शुरू कर दे। अल-क़ायदा इन देशों में शियाओं की मौजूदगी को दबाना चाहता है।
  2. फ़िलिस्तीन- फ़िलिस्तीन में चल रहे जनसंहार और फ़िलिस्तीन की आज़ादी के संघर्ष के लिए इसके असाधारण परिणाम होने वाले हैं। एचटीएस की तरफ़ से असद की सेना को कमज़ोर करने में इज़राइल की जो भूमिका रही है उसकी वजह से लगता नहीं कि अल-जोलानी फ़िलिस्तीन पर इज़राइल के कब्ज़े का विरोध करेगा या ईरान को हिज़बुल्ला या हमास को फिर से समान पहुँचाने देगा। यूँ तो अल-जोलानी का नाम गोलन से निकला है लेकिन यह सोचा भी नहीं जा सकता कि वह गोलन हाइटस् को सीरिया में शामिल करने के लिए लड़ाई लड़ेगा। लेबनान और सीरिया में इज़राइल के ‘बफ़र्स’ इस क्षेत्र में इसकी हरकतों के लिए एक तरह का संतोष पैदा करते हैं। यह काम उसने मिस्र (1979) और जॉर्डन (1994) के साथ शांति संधियों से पूरा किया। इस समय इज़राइल का कोई भी पड़ोसी देश उसके लिए ख़तरा नहीं खड़ा करेगा। इस सब घटनाओं के बीच फ़िलिस्तीनियों का संघर्ष पहले ही अकेला-सा पड़ गया है। प्रतिरोध तो जारी रहेगा लेकिन इसके लिए कोई भी पड़ोसी देश मदद के लिए आगे नहीं आ पाएगा।
  3. सहेल क्षेत्र- जहाँ तक भूराजनीति की बात है, तो यूएस और इज़राइल मानो एक ही देश हैं इसलिए इज़राइल की जीत मतलब यूएस की जीत। सीरिया में सरकार बदलने से कुछ समय के लिए सिर्फ़ ईरान ही कमज़ोर नहीं पड़ा है बल्कि रूस भी कमज़ोर हुआ है (यह बहुत समय से यूएस का एक रणनीतिक लक्ष्य रहा है)। रूस दरअसल सीरिया के हवाई अड्डों का इस्तेमाल तमाम अफ्रीकी देशों तक जा रहे अपने सप्लाई विमानों में ईंधन भरने के लिए करता था। अब रूस इन अड्डों का इस्तेमाल नहीं कर सकेगा और अभी कहना मुश्किल है कि अफ्रीका और ख़ासतौर से सहेल क्षेत्र में जा रहे रूसी विमान इस क्षेत्र में कहाँ ईंधन भरवा पाएंगे। इससे यूएस को मौका मिलेगा कि वह सहेल क्षेत्र की सरहद से लगे देशों जैसे नाइजीरिया और बेनिन को बुर्किना फ़ासो, माली और नाइज़र की सरकारों के ख़िलाफ़ हमला बोलने के लिए मजबूर कर सके। इस स्थिति पर नज़र बनाए रखना ज़रूरी है।

फ़िलिस्तीन, जिम्ला बिंत मोहम्मद (अल्जीरिया), 1974.

जुलाई 1958 में कई कवियों ने मिलकर अक्का (कब्ज़े वाला फ़िलिस्तीन ’48) में एक उत्सव किया। इसमें शामिल कवियों में से एक डेविड सेमाह ने अखी तौफ़ीक़ (तौफ़ीक़ मेरा भाई) नाम की कविता फ़िलिस्तीनी कम्युनिस्ट कवि तौफ़ीक़ ज़ियाद को समर्पित की। तौफ़ीक़ ज़ियाद इस उत्सव के दौरान इज़राइली जेल में थे। सेमाह की पंक्तियां हमारे अंदर वो भावना जगाती हैं जिसकी हमारे दौर में बेहद ज़रूरत है:

अगर वो मिट्टी में कंकाल बोएंगे
हम फ़सल काटेंगे उम्मीद और रौशनी की।

सस्नेह,

विजय