प्यारे दोस्तों,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
मार्च 2015 में, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने -खाड़ी सहयोग परिषद (जीसीसी) के अन्य सदस्यों के साथ मिलकर- यमन पर बमबारी शुरू कर दी। राष्ट्रपति अब्दराबुह मंसूर हादी की सरकार, ज़ैदी शिया के अंसार अल्लाह आंदोलन और अल-क़ायदा के बीच गृहयुद्ध बढ़ने के साथ, इन देशों में लगभग एक साल पहले संघर्ष शुरू हो गया था। सऊदी राजशाही के नेतृत्व में जीसीसी, किसी भी शिया राजनीतिक परियोजना को, चाहे उसका संबंध ईरान के साथ हो या न हो, अपने पड़ोस में सत्ता में आने से रोकना चाहता था। इसलिए यमन पर हो रहे हमले को इस रूप में ही देखा जाना चाहिए कि सुन्नी राजाओं को यह डर है कि अरब प्रायद्वीप में शिया राजनीतिक परियोजना के सत्ता में आने की संभावना हो सकती है।
वह युद्ध जारी है, जिसमें सऊदी और अमीरात को पश्चिमी देशों का पूरा समर्थन मिल रहा है, जिन्होंने उन्हें यमन के ग़रीब लोगों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करने के लिए अरबों डॉलर के हथियार बेचे हैं। अरब देशों में से सबसे अमीर सऊदी अरब पिछले साढ़े छह साल से अरब के सबसे ग़रीब देश यमन के ख़िलाफ़ युद्ध कर रहा है, जिसमें उसे अभी तक कोई बहुत ज़्यादा फ़ायदा नहीं हुआ है। जबकि इस दौरान, 3 करोड़ की आबादी वाले यमन ने इस युद्ध में 2,50,000 से अधिक लोगों को खो दिया है, इनमें से आधे लोग युद्ध की हिंसा में मारे गए और बाक़ी आधे लोग भुखमरी और हैज़ा जैसी बीमारियों की वजह से। सऊदी और अमीरात अपने कोई भी सैन्य या राजनीतिक उद्देश्य इस युद्ध के दौरान हासिल नहीं कर पाए हैं (यूएई ने 2020 में युद्ध से अपना हाथ पीछे खींच लिया था)। इस युद्ध का एकमात्र परिणाम यमनी लोगों की तबाही रहा है।
फ़रवरी 2021 से, अंसार अल्लाह के सैन्य बल मारिब पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश कर रहे हैं; मारिब यमन की तेल शोधन परियोजना का प्रमुख केंद्र है, और देश के उन कुछ हिस्सों में से एक है जो अभी भी राष्ट्रपति हादी के नियंत्रण में हैं। अन्य प्रांत, जैसे कि दक्षिण अल-क़ायदा के हाथों में हैं, जबकि सेना से अलग होकर काम करने वाला गुट पश्चिमी समुद्र तट को नियंत्रित करते हैं। मारिब पर हो रहे हमलों ने मौत की विभीषिका और भी बढ़ा दी है, जिससे शरणार्थियों की बाढ़ आ गई है। यदि मारिब पर क़ब्ज़ा करने में अंसार अल्लाह कामयाब हो जाता है, जिसकी संभावना भी है, तो हादी को देश का राष्ट्रपति बनाए रखने का संयुक्त राष्ट्र का मिशन विफल हो जाएगा। इसके बाद अंसार अल्लाह अरब प्रायद्वीप में अल-क़ायदा (एक्यूएपी), जिनका अबयान प्रांत पर क़ब्ज़ा है, के ख़िलाफ़ कार्रवाई कर देश को पुन: संगठित करने की कोशिश करेगा; एक्यूएपी को अब यमन में नवगठित इस्लामिक स्टेट द्वारा चुनौती दी जा रही है। एक्यूएपी के ख़िलाफ़ समयबद्ध अमेरिकी हमले के साथ-साथ ज़मीन पर अंसार अल्लाह से लड़ने के लिए एक्यूएपी पर सऊदी गठबंधन का हमला जारी है, जिसमें नागरिकों और शांति की वकालत करने वालों को डराना, धमकाना, और उनकी हत्याएँ करना भी शामिल है।
19 अक्टूबर को यूनिसेफ़ के प्रवक्ता जेम्स एल्डर ने यमन से लौटने के बाद जिनेवा में प्रेस को जानकारी दी। उन्होंने लिखा कि, ‘यमन युद्ध ने एक और शर्मनाक मील का पत्थर हासिल किया है: मार्च 2015 में लड़ाई शुरू होने के बाद से 10,000 बच्चे मारे जा चुके हैं या अपंग हो गए। यानी हर दिन चार बच्चे’। एल्डर की रिपोर्ट चौंकाने वाली है। जिन 1.5 करोड़ (यमन की आबादी के 50%) लोगों के पास बुनियादी सुविधाओं तक पहुँच नहीं है, उनमें से 85 लाख बच्चे हैं। अगस्त में, यूनिसेफ़ की कार्यकारी निदेशक हेनरीटा फ़ोर ने संयुक्त राष्ट्र महासभा को बताया कि, ‘यमन में एक बच्चा होना बुरे सपने जैसा है’। फ़ोर ने कहा, ‘यमन में कुपोषण और वैक्सीन से रोकी जा सकने वाली बीमारियों जैसी रोकथाम योग्य कारणों से हर दस मिनट में एक बच्चा मर जाता है’।
दोस्तों, यह है युद्ध की क़ीमत। युद्ध एक यातना है, जिसके परिणाम भयानक होते हैं। शायद ही कोई इतिहास की ओर मुड़कर किसी ऐसे युद्ध की ओर इशारा कर सकता है जो कि सही मायने में सार्थक था। अगर ऐसे युद्धों की सूची बना भी ली जाए, तो यमन उस सूची में नहीं होगा, और न ही वे देश होंगे जहाँ किन्हीं अन्य लोगों की कल्पना की विफलताओं के कारण ख़ून बहा।
लाखों लोगों ने अपनी जान गँवाई है और उससे भी ज़्यादा लोगों ने अपने जीवन को तबाह होते देखा है। आर्थिक प्रतिबंधों और व्यापार विवादों जैसे अन्य शांत लेकिन घातक युद्धों से जूझ रहे देश के एक भूखे व्यक्ति, जिसने बस मौत और दुख देखा हो, के पास बम गिरना बंद होने के बाद सिर्फ़ ख़ाली टकटकी ही बचती है। इस द्वेष से पीड़ित लोगों को इसका कोई लाभ नहीं होता। शक्तिशाली देश भले ही शतरंज के टुकड़ों की तरह चीज़ों को अपने पक्ष में कर पाने में सफल हो जाते हैं और हथियारों के डीलर अपनी नयी कमाई को सुरक्षित करने के लिए बैंकों में नये खाते खोल लेते हैं – इसीलिए ये सब चलता रहता है।
यमन में जारी युद्ध केवल देश की आंतरिक राजनीति से प्रेरित नहीं है; बल्कि ख़ास तौर पर सऊदी अरब और ईरान के बीच की भयानक क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्विता का परिणाम है। इस प्रतिद्वंद्विता का कारण लगता है कि सुन्नी सऊदी अरब और शिया ईरान के बीच का सांप्रदायिक मतभेद है, लेकिन वास्तव में प्रतिद्वंद्विता की जड़ बहुत गहरी है: राजशाही इस्लामी सऊदी अरब अपने पड़ोस में एक गणतांत्रिक इस्लामी सरकार को बर्दाश्त नहीं कर सकता। जब ईरान पर पहलवी शाह (1925-1979) का शासन था, तो सऊदी अरब को कोई समस्या नहीं थी। इसकी दुश्मनी 1979 की ईरानी क्रांति के बाद ही बढ़ी, जब यह स्पष्ट हो गया कि अरब प्रायद्वीप पर एक इस्लामी गणतंत्र संभव हो सकता है (इससे पहले उत्तरी यमन गणराज्य के ख़िलाफ़ 1962 और 1970 के बीच सऊदी और ब्रिटिश-प्रेरित युद्ध चला था)।
इसलिए, यह एक स्वागत योग्य घटनाक्रम है कि ईरान और सऊदी अरब दोनों के उच्च अधिकारी इस साल अप्रैल में पहली बार बग़दाद में मिले और फिर से सितंबर में आपसी तनाव को कम करने के उद्देश्य से मिले। इस चर्चा में इराक़, लेबनान, सीरिया और यमन -वे सभी देश सऊदी अरब और ईरान के बीच की समस्याओं से पीड़ित हैं- की क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्विता के मुद्दों को उठाया जा चुका है । यदि रियाद और तेहरान के बीच किसी तरह का समझौता हो जाए तो इससे इस क्षेत्र में होने वाले युद्धों में कमी आ सकती है।
1962 में, एक म़जदूर वर्ग के सैन्य अधिकारी, अब्दुल्ला अल-सल्लल ने यमन के मुतावक्किल साम्राज्य के अंतिम शासक से सत्ता लेने के लिए एक राष्ट्रवादी सैन्य तख़्तापलट का नेतृत्व किया। कई संवेदनशील लोग नयी सरकार में शामिल होने के लिए आगे आए, इनमें प्रतिभाशाली वकील और कवि अब्दुल्ला अल-बरदौनी भी थे। अल-बरदौनी 1962 से 1992 में अपनी मृत्यु तक राजधानी सना में रेडियो प्रसारण सेवा में काम करते रहे, और अपने देश में संवेदनशील सांस्कृतिक माहौल का विस्तार करने में उनकी अहम भूमिका रही। उनकी कविताओं के दीवान (‘संग्रह’) में मदीनत अल ग़द’ (‘भविष्य का अहहर’), 1968 और अल सफ़र इला अय्याम अल ख़ुद्र (‘हरे भरे दिनों की ओर सफ़र’), 1979 शामिल हैं। ‘निर्वासन से निर्वासन तक’ (फ़्रोम एग्ज़ायल टू एग्ज़ायल) उनकी क्लासिक कविताओं में से एक है:
मेरा देश एक तानाशाह से दूसरे, उससे भी ज़्यादा
अत्याचारी तानाशाह के हाथों में सौंप दिया जाता है;
एक जेल से दूसरी जेल,
एक निर्वासन से दूसरे निर्वासन में भेज दिया जाता है।
रखवाली करने वाले, हमलावर और
गुप्त नियंत्रक इसपर उपनिवेश स्थापित करते हैं;
और इसे निर्बल ऊँट की तरह
एक जानवर से दूसरे के हाथों को सौंप देते हैं।
अपनी मौत की गुफाओं में
मेरा देश न मरता है
न ठीक होता है। बस खोदता रहता है
ख़ामोश क़ब्रों में
अपनी शुद्ध उत्पत्ति
आँखों के पीछे सो चुके
अपने वसंत के वादे
और छिपी हुई रूह को ढूँढ़ता हुआ।
एक अंधेरी रात से दूसरी
और अंधेरी रात तक चलता जाता है।
मेरा देश सुबकता रहता है
अपनी सीमाओं में
और अन्य लोगों की ज़मीन पर
और अपनी धरती पर भी
निर्वासन के
अलगाव को झेलता रहता है।
अल-बरदौनी का देश अपनी सीमाओं के अंदर अपनी तबाही पर ही नहीं, बल्कि अपने ‘वसंत के वादे’ के लिए, और अपने खोए हुए इतिहास के लिए भी सुबक रहा है। अफ़ग़ानिस्तान, सूडान और दुनिया के कई अन्य देशों की तरह, देश के दक्षिण में 1967 से 1990 तक पीपुल्स डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ यमन (पीडीआरवाई) की सरकार के साथ यमन कभी वामपंथी संभावना का केंद्र था। पीडीआरवाई ट्रेड यूनियनों (एडेन ट्रेड यूनियन कांग्रेस और उसके करिश्माई नेता अब्दुल्ला अल-असनाग) और मार्क्सवादी मोर्चों (जैसे नेशनल लिबरेशन फ़्रंट) के नेतृत्व में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ चले उपनिवेश-विरोधी संघर्ष से उभरा था, और आंतरिक संघर्षों के बाद 1978 में राष्ट्रपति अब्दुल फ़त्ताह इस्माइल के नेतृत्व में यमनी सोशलिस्ट पार्टी बन गया था। पीडीआरवाई ने भूमि सुधार लागू किया और कृषि उत्पादन को बढ़ावा देने का प्रयास किया, एक राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली क़ायम की (जिसने महिलाओं की शिक्षा को बढ़ावा दिया), ग्रामीण इलाक़ों में स्वास्थ्य केंद्रों की उपलब्धता के साथ एक मज़बूत चिकित्सा प्रणाली का निर्माण किया, और 1974 के परिवार क़ानून को बढ़ावा दिया, महिलाओं की मुक्ति जिसका केंद्रीय एजेंडा थी। लेकिन यह सब कुछ तब नष्ट हो गया जब 1990 में यमन के एकीकरण के लिए पीडीआरवाई को उखाड़ फेंका गया। बमों से तबाह हो चुके इस देश के कोनों में कमज़ोर समाजवादी स्मृति कहीं कहीं बची है।
स्नेह-सहित,
विजय।