महिलाओं की मुक्ति का संघर्ष हमेशा सार्थक रहेगा: 12वां न्यूज़लेटर (2024)
प्यारे दोस्तो,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
8 मार्च हमेशा से अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस नहीं रहा, और न ही ऐसे अन्य दिवस हमेशा से मनाए जा रहे हैं। यह विचार सोशलिस्ट इंटरनेशनल (जिसे सेकंड इंटरनेशनल के रूप में भी जाना जाता है) से उभरा, जहां जर्मन सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी की क्लारा ज़ेटकिन व अन्य महिलाओं ने कामकाजी महिलाओं के जीवन और संघर्षों का जश्न मनाने के लिए एक दिन आयोजित करने के लिए 1889 से लड़ाई लड़ी। ज़ेटकिन ने, रूसी सोशल डेमोक्रेटिक लेबर पार्टी की एलेक्जेंड्रा कोल्लंताई के साथ मिलकर, सामाजिक धन के निर्माण में कामकाजी महिलाओं और घरेलू श्रम की भूमिका को पहचानने के लिए अपने साथियों के साथ संघर्ष जारी रखा। एक ऐसे संदर्भ में जब उत्तरी अटलांटिक देशों में महिलाओं को वोट देने का भी अधिकार नहीं था, इन महिलाओं ने सोशलिस्ट इंटरनेशनल के प्रतिनिधियों के बीच इस बात पर जारी बहस में हस्तक्षेप किया कि क्या पुरुषों और महिला श्रमिकों को शोषण के अपने साझा अनुभव के ख़िलाफ़ समाजवाद के बैनर तले एकजुट होना चाहिए या महिलाओं को घर पर रहना चाहिए।
1908 में, सोशलिस्ट पार्टी ऑफ अमेरिका के महिला वर्ग ने महिला दिवस मनाने के लिए 3 मई को शिकागो में एक सामूहिक रैली आयोजित की। अगले वर्ष, इस आयोजन का विस्तार हुआ और 28 फरवरी 1909 के दिन पूरे अमेरिका में राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया। 1910 में कोपेनहेगन में आयोजित समाजवादी महिलाओं के दूसरे अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में अंततः सोशलिस्ट इंटरनेशनल के सभी वर्गों ने 1911 में महिला दिवस समारोह आयोजित करने का प्रस्ताव पारित किया। 1848 की मार्च क्रांति की स्मृति में समाजवादी महिलाओं ने 19 मार्च 1911 को ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, जर्मनी और स्विट्जरलैंड में सार्वजनिक कार्यक्रम आयोजित किए। 1912 में, यूरोप में 12 मई को महिला दिवस मनाया गया और 1913 में, रूसी महिलाओं ने 8 मार्च को महिला दिवस मनाया। 1917 में, रूस में महिला श्रमिकों ने 8 मार्च को ‘रोटी व शांति‘ के लिए एक सामूहिक हड़ताल आयोजित की, जिससे व्यापक संघर्षों जन्म हुआ जिनके परिणामस्वरूप रूसी क्रांति हुई। 1921 में कम्युनिस्ट महिलाओं के दूसरे अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में, 8 मार्च को आधिकारिक तौर पर अंतर्राष्ट्रीय कामकाजी महिला दिवस के वार्षिक उत्सव की तारीख के रूप में चुना गया। इस तरह यह तारीख़ संघर्षों के अंतर्राष्ट्रीय कैलेंडर में एक महत्वपूर्ण तारीख़ बन गई।
1945 में, दुनिया भर की कम्युनिस्ट महिलाओं ने महिला अंतर्राष्ट्रीय डेमोक्रेटिक फेडरेशन (WIDF) का गठन किया, जिसने अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1972 में, ऑस्ट्रेलिया की WIDF व ऑस्ट्रेलिया की कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य फ्रेडा ब्राउन ने संयुक्त राष्ट्र को लिख कर यह प्रस्ताव पेश किया कि संयुक्त राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष आयोजित करे और महिलाओं के खिलाफ हर प्रकार के भेदभाव के उन्मूलन पर एक कन्वेंशन आयोजित करे। WIDF की माँग पर, हेलवी सिपिला, एक फिनिश राजनयिक और संयुक्त राष्ट्र में सहायक महासचिव का पद संभालने वाली पहली महिला (जबकि उस समय 97% वरिष्ठ पदों पर पुरुषों का कब्जा था), ने अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष के प्रस्ताव का समर्थन किया। इस माँग को 1972 में स्वीकार किया गया और 1975 में अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष के रूप में मनाया गया। 1977 में, संयुक्त राष्ट्र ने महिला अधिकारों व अंतर्राष्ट्रीय शांति के लिए एक दिवस आयोजित करने का प्रस्ताव पारित किया, जिसे अब अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में जाना जाता है और 8 मार्च को मनाया जाता है।
हर मार्च, ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान इस परंपरा को बरकरार रखते हुए संघर्ष में अहम भूमिका निभाने वाली किसी एक महत्वपूर्ण महिला नेता के बारे में लेख प्रकाशित करता है। इस कड़ी में अब तक भारत की कनक मुखर्जी (1921-2005), इक्वाडोर की नेला मार्टिनेज एस्पिनोसा (1912-2004), और दक्षिण अफ़्रीका की जोसी म्पामा (1903-1979) के बारे में लेख प्रकाशित किए गए हैं। इस वर्ष, हम अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस (हालांकि शायद अंतर्राष्ट्रीय कामकाजी महिला माह मनाया जाना बेहतर होगा) के अवसर पर डोसियर नं 74 ‘Interrupted Emancipation: Women and Work in East Germany‘ प्रकाशित कर रहे हैं, जिसे ज़ेटकिन फोरम फॉर सोशल रिसर्च और इंटरनेशनल रिसर्च सेंटर डीडीआर (IFDDR) के सहयोग से तैयार किया गया है। हमने IFDDR के साथ इससे पहले भी दो अध्ययन प्रकाशित किए हैं: एक, जर्मन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक (DDR) के आर्थिक इतिहास पर और दूसरा, DDR की स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था पर। ज़ेटकिन फ़ोरम यूरोपीय महाद्वीप में हमारी पार्ट्नर संस्था है, जिसका नाम क्लारा ज़ेटकिन और उनके बेटे के नाम से प्रेरित है। क्लेरा ज़ेटकिन (1857-1933), ने अंतर्राष्ट्रीय कामकाजी महिला दिवस स्थापित करने में भूमिका निभाई थी और उनके बेटे मैक्सिम ज़ेटकिन (1883-1965), एक सर्जन थे जिन्होंने सोवियत संघ में नई स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली की स्थापना में मदद की थी। वे स्पेनिश गणराज्य (1931-1939) की रक्षा में अंतर्राष्ट्रीय ब्रिगेड की ओर से लड़े थे, और DDR में एक अग्रणी चिकित्सक बने।
हमारा डोसियर Interrupted Emancipation पूर्वी जर्मनी में विभिन्न महिला संस्थाओं में और राज्य संरचनाओं के भीतर समाजवादी महिलाओं के संघर्षों की पड़ताल करता है। कथरीना ‘कैथे‘ केर्न, हिल्डे बेंजामिन, लाइके एरेसिन, हेल्गा ई. होर्ज़, ग्रेटे ग्रोह–कुमेरलो, और हर्टा कुहरिग सरीखी महिलाओं ने समतावादी कानूनी व्यवस्था बनाने, बच्चों व बुजुर्गों की देखभाल के लिए समाजवादी नीतियों ने निर्माण में तथा महिलाओं को आर्थिक व राजनीतिक संस्थानों में नेतृत्वकारी भूमिका में लाने का संघर्ष किया। ये उपाय केवल महिला कल्याण व उनके जीवन में सुधार लाने की दृष्टि से नहीं बल्कि सामाजिक जीवन, ग़ैरबरबरी के यथार्थ और सामाजिक चेतना को बदलने के लिए लागू किए गए थे। 1953 से 1967 तक डीडीआर की न्याय मंत्री रही हिल्डे बेंजामिन का मानना था कि, यह काफ़ी नहीं कि कानून सामाजिक अधिकारों की गारंटी दें और उन्हें लागू करने की रूपरेखा प्रदान करें, बल्कि जरूरी है कि क़ानून ‘समाजवादी चेतना के विकास में लगातार प्रगति हासिल करें‘।
महिलाओं ने बड़ी संख्या में कार्यबल में प्रवेश किया, (गर्भपात सहित) बेहतर परिवार नियोजन के लिए संघर्ष किया और उस सम्मान की मांग सामने रखी जिसकी वे हकदार थीं। यह डोसियर हमें बताता है कि इतने कम समय (केवल चालीस वर्ष) में कितना कुछ हासिल किया गया था। हेल्गा होर्ज़ जैसी नेताओं का तर्क था कि कार्यबल में महिलाओं का प्रवेश उनकी आय बढ़ाने के साथ–साथ सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी की संभावना सुनिश्चित करता है। हालाँकि, परिवर्तन अपेक्षित गति से नहीं हुए। दिसंबर 1961 में, सत्तारूढ़ सोशलिस्ट यूनिटी पार्टी (एसईडी) के पोलित ब्यूरो ने ‘इस तथ्य की निंदा की कि मध्य व प्रबंधकीय कार्यों पर महिलाएं व लड़कियां अपर्याप्त प्रतिशत में उपस्थित हैं‘ और इसके लिए कुछ हद तक, ‘समाजवाद में महिलाओं की भूमिका को कम आंकने में –प्रमुख पार्टी, राज्य, आर्थिक और ट्रेड यूनियन पदाधिकारियों सहित– पुरुषों‘ के दृष्टिकोण को ज़िम्मेदार ठहराया गया। इस वास्तविकता को बदलने के लिए, महिलाओं ने बड़े पैमाने पर संघर्ष करने हेतु कार्यस्थल पर कमेटियाँ बनाईं और गृहणी ब्रिगेड की स्थापना की, और महिलाओं की मुक्ति के हक़ में समाज को जीतने के लिए संघर्ष किया।
1990 के दशक में DDR के विघटन और पश्चिम जर्मनी में इसके शामिल होने के बाद समाजवादी महिलाओं ने जो लाभ कमाए थे, वे खत्म हो गए। आज, जर्मनी में, ये समाजवादी नीतियां ज़िंदा नहीं बची हैं, और न ही जन संघर्षों में DDR के चार दशकों में हासिल किया गया जज़्बा बाकी है। इसीलिए इस डोसियर का शीर्षक है Interrupted Emanicipation (बाधित मुक्ति) है; इसमें लेखकों की आशा और दृढ़ विश्वास का प्रतिबिंब है, कि उस दौर के जज़्बे को वापस ज़िंदा किया जा सकता है।
गिसेला स्टीनकर्ट उन महिलाओं में से एक थीं जिन्हें DDR में हुए परिवर्तनों से लाभ हुआ था। वे एक प्रसिद्ध लेखिका बनीं और सांस्कृतिक क्षेत्र को विकसित करने में अपना योगदान दिया। उनकी कविता ‘शाम में‘ में वो पूछती हैं, क्या यह संघर्ष सार्थक है? और तुरंत जवाब देती हैं कि: ‘सपने देखने वालों का दिल हमेशा भरा रहता है।‘ एक बेहतर दुनिया की आवश्यकता ही पर्याप्त उत्तर है।
शाम में, हमारे सपने चाँद के सिरहाने,
गहरी साँस लेकर पूछते हैं कि क्या यह संघर्ष सार्थक है।
हर कोई किसी ऐसे को जानता है जो कष्ट सह रहा है,
सहे जा सकने वाले कष्टों से कहीं ज़्यादा।
ओह, और सपने देखने वालों का दिल हमेशा भरा रहता है।
शाम में मखौल बनाने वाले खिल्ली उड़ाते हैं।
हमारी हर जीत को तुच्छ बना देते हैं, और संघर्षों को मज़ाक़।
उनकी रटी रटाई लाइनें किसी को नहीं बख्शतीं।
ओह, और वे हमें सलाह देते हैं: कुछ भी सार्थक नहीं।
शाम में चेहरे पर झुर्रियां लिए शक्की आते हैं,
पुराने ख़त पलटते हैं, हमारी बातों पर भरोसा नहीं करते।
समय से पहले बूढ़े हो चुके ये लोग, इन सब से दूर रहते हैं।
ओह, और उनके दुःख–दर्द साफ़ दिखते हैं।
शाम में लड़ाके अपने जूते उतारकर,
स्वाद खाना खाते हैं, छत में तीन कीलें ठोंकते हैं।
जीते हुए हथियारों और लाल वाइन के साथ
वो किताब पढ़ने बैठते हैं, और पढ़ते–पढ़ते सो जाते हैं।
स्नेह–सहित,
विजय।